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बावची का औषधीय उपयोग
इसके बीजों का उपयोग सफेद दाग (ल्यूकोडर्मा) तथा कोढ़ रोग (लिपे्रसी) के उपचार हेतु बनने वाली औषधियों में किया जाता है। इसके लिए बीजों से निकाले गये तेल का उपयोग किया जाता है। इसकी जड़ को दाॅंत की कैरी तथा पत्ती को दस्त निरोधक के रूप में उपयोग किया जाता है। उपरोक्त त्वचा रोंगों के अतिरिक्त बीज का प्रयोग लैक्जेटिव, शक्तिवर्धक, कृमिनाशक, मूत्रल, ज्वरनाशक, उदर विकार एवं विच्छू के विष को उतारने के लिए भी किया जाता है। तेल कवक तथा जीवाणुनाशी भी होता है। बीजों के उड़नशील तेल में बीटा केरियोफाइलिन तथा लिनालूल नामक तत्व प्रमुख रूप से पाये जाते हैं जबकि बीज एवं जड़ में चालकोन्स, फलेमोन्स, आइसोफेलेमोन्स, फल्यूरानोकामरिन्स तथा कामेस्ट्राल समूह के घटक पाये जाते हैं।
बावची के लिए भूमि एवं जलवायु
बावची सामान्य पी0एच0 वाली सभी प्रकार की भूमियों में उगायी जा सकती है। उत्तम जलनिकास वाली दोमट कछारी तथा मटियारी काली भूमि इसकी खेती के लिए उत्तम होती है। समशीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्र इसकी खेती करने हेतु सर्वोपयुक्त होते हैं।
बावची की उन्नत किस्में
नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, फैजाबाद द्वारा आई सी-111226 नामक उन्नत उत्पादन देने वाली किस्म का विकास किया गया है।
बावची का प्रवर्धन
बावची का प्रवर्धन बीज द्वारा किया जाता है। इसका बीज बहुत ही छोटा होता है। अतः इसकी बुवाई किसी भी प्रकार से 1.0 से 1.5 सें.मी0 से अधिक गहराई पर नहीं की जानी चाहिए अन्यथा अंकुरण होते हुए भी पौधे ऊपर नहीं आ पाते हैं। प्रति हैक्टेयर क्षेत्रफल की बुवाई हेतु 8 से 10 किग्रा0 बीज की आवश्यकता होती है। बीजों को बुवाई से पूर्व किसी पारायुक्त रसायन से 2 से 5 ग्राम दवा प्रति किलोग्रामबीज की दर से उपचारित करना लाभदायक रहता है। बीजों की बुवाई छिटकवाॅ विधि से अथवा कतारों में 50 सेमी0 के अन्तर पर करना चाहिए। छिटकवां बोने पर अंकुरण पूर्ण होने के बाद विरलन (थिनिंग) की क्रिया अपनाकर पौधों की आपसी दूरी को व्यवस्थित करना पड़ता है। पौध से पौध की दूरी 50 सें.मी. रखते हैं। बुवाई मध्य जून से मध्य जुलाई के बीच की जाती है।
बावची के लिए खाद एवं उर्वरक
बुवाई से पूर्व खेत की तैयारी करते समय 10 टन भली प्रकार सड़ी गोबर की खाद तथा सिंचित दशा में 20 किग्रा0 नाइट्रोजन, 30 किग्रा0 फाॅस्फोरस तथा 20 किग्रा0 पोटाश प्रति हैक्टेयर तत्व के रूप में मिलाकर खेत की मिट्टी को खूब भुरभुरी बना लेना चाहिए। पौधे जब सिंचाई करने योग्य हो जाते हैं तब पहली सिंचाई के बाद 20 किग्रा0 नत्रजन का प्रयोग खड़ी फसल में करने से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है।
बावची की निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई
मैदानी क्षेत्रों में यह खरीफ की फसल के रूप में उगायी जाती है। अतः खरपतवारों का होना स्वाभाविक ही है। वर्षा के दौरान समय मिलने पर निकाई-गुड़ाई करके खरपतवारों को निकाल देना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर जाड़े के मौसम में एक दो सिंचाई कर देना चाहिए।
बावची की पादप सुरक्षा
बावची में मुख्य रूप से तना सड़न रोग का प्रकोप देखा गया है। इसके नियंत्रण हेतु ट्राइकोडर्मा का 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। फलों पर इल्ली का प्रकोप देखा गया है। यह फलों को अन्दर से खाकर खोखला कर देती है। जिसके कारण इसमें बीजों का निर्माण नहीं हो पाता है। इल्ली को नियंत्रित करने हेतु मैलाथियान नामक कीटनाशी का छिड़काव (2 मिली0 प्रति लीटर पानी) करना चाहिए।
बावची की कटाई
बावची के पौधों में नवम्बर-दिसम्बर में फूल आने प्रारम्भ कर देते हैं जो 200 से 215 दिनों में फल के रूप में परिपक्व हो जाते हैं। अधिकांश फलों के पक जाने पर पौधों की कटाई कर ली जानी चाहिए। फसल तैयार हो जाने पर कटाई में विलम्ब करने से फल चिटक कर बीज बिखर जाते हैं। बाद में फलों की मड़ाई (थ्रेसिंग) करके बीजों को निकालकर सूखे स्थान पर बोरियों में भरकर भण्डारित कर लिया जाना चाहिए।
बावची की उपज
बावची में प्रति हैक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग 12 से 15 कुन्तल बीजों की उपज प्राप्त हो जाती है। आय बाजार मूल्य पर निर्भर करती है।