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फलदार वृक्षों में जल प्रबंधन

पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति जल से हुई है बिना जल के किसी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। जल पौधों का एक आवश्यक अवयव है पौधों में 90% से अधिक जल होता है तथा एक भाग शुष्क पदार्थ बनने के लिए 300 से 1000 भाग पानी की आवश्यकता होती है। पौधों का निर्माण कोशिकाओं से होता है कोशिकाओं में जीव द्रव्य होता है जो जीवन का लक्षण है। बिना जल के जीव द्रव्य नहीं बन सकता है। पर्याप्त
drip irrigation- Israel
टपक सिंचाई
जल के अभाव में कोशिकाएं सिकुड़कर मर जाती हैं जिसके फलस्वरूप पौधों का जीवन समाप्त हो जाता है। पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया होती है इस क्रिया में पत्तियों में पाए जाने वाले रंध्रों से जल वाष्प  के रूप में उड़ता है जिससे पौधों का तापमान अधिक नहीं बढ़ने पाता है। जल के अभाव में  वाष्पोत्सर्जन हेतु जल नहीं मिलता है और पौधे सूखने लगते हैं इसके अतिरिक्त पौधे सूर्य के प्रकाश में अपना भोजन स्वयं बनाते हैं जिस में भी पानी की आवश्यकता होती है। पौधे आवश्यक पोषक तत्वों का शोषण जड़ों द्वारा करते हैं जो जल में ही घुल कर पौधों में पहुंचते हैं पौधों के अंदर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पोषक तत्वों व संश्लेषित खाद्य पदार्थों का स्थानांतरण भी जल के द्वारा होता है। इस प्रकार जल का वनस्पतियों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।

जल प्रबंधन

मृदा में जल कई रूपों में पाया जाता है जिसमें से जल के कुछ ऐसे रूप होते हैं जो
पौधों के लिए उपयोगी नहीं होते हैं कभी-कभी उनके उपलब्धता पौधों की जड़ों के लिए हानिकारक होती है औद्यानिक फसलों में जल प्रबंधन से तात्पर्य मृदा में समुचित मात्रा में जल के उस रूप को बनाए रखना है जो पौधों के लिए आवश्यक होता है। जल प्रबंधन में मृदा में जल की कमी होने की दशा में सिंचाई की जाती है इसके साथ ही नमी संरक्षण भी किया जाता है जिससे पौधे उपलब्ध जल का अधिकाधिक प्रयोग कर सकें। यदि पानी ज्यादा भर जाता है तो उसको निकालने की विधि भी अपनाई जाती है जिससे ज्यादा पानी से पौधों को नुकसान ना हो सके।

सिंचाई

मृदा में नमी का पर्याप्त स्तर बनाए रखने के लिए कृत्रिम रुप से पानी देने को सिंचाई कहते हैं। सिंचाई के लिए भूगर्भ जल के स्रोतों का उपयोग करते हैं तथा भूमि की सतह पर एकत्र जल का भी उपयोग करते हैं। औद्यानिक फसलों की सिंचाई में जल को बाग या खेत तक पहुंचाया जाता है और निम्नलिखित में से किसी एक विधि को अपनाकर सिंचाई की जा सकती है। सिंचाई की विधि का चुनाव कई कारकों को ध्यान में रखकर किया जा सकता है।

प्रवाह विधि

यह वैज्ञानिक विधि नहीं है जिसमें पानी को खेत में भरने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस विधि में पानी की क्षति होती है तथा कभी-कभी पौधों को अधिक पानी से नुकसान भी होता है। सिंचाई हेतु इस विधि को बढ़ावा नहीं देना चाहिए।

क्यारी विधि

इस विधि में खेत को छोटी छोटी क्यारियों में विभाजित कर लिया जाता है और नियंत्रित मात्रा में पानी छोड़ कर सिंचाई की जाती है। यह विधि पौधशाला की सिंचाई हेतु उपयुक्त होती है। इस विधि द्वारा नियंत्रित मात्रा में आवश्यकतानुसार पानी पौधों को दिया जा सकता है। सिंचाई के इस विधि द्वारा सिचाई करने पर खेत में अनावश्यक पानी नहीं भरता है और पौधों को ज्यादा पानी से होने वाला नुकसान नहीं होता है।

थाला विधि

इस विधि  में फल वृक्षों के चारों ओर थाला बना दिया जाता है तथा वृक्षों की दो पंक्तियों के बीच में नाली बनाकर उसे थालों से जोड़ दिया जाता है। नाली में सिंचाई का पानी खोल देते हैं जो थालों में पहुंच जाता है। समतल भूमि में फल वृक्षों की सिचाई हेतु यह एक उपयुक्त विधि है। इस विधि  से सिंचाई करने पर पानी की बचत होती है तथा बाग में दिए गए खाद व उर्वरक पानी के साथ बह कर एक तरफ नहीं जाते हैं और सभी वृक्षों को समान रूप से मिलते हैं।


टपक सिंचाई

फल वृक्षों की सिचाई की यह आधुनिकतम विधि है जिसका उपयोग ऊंची नीची भूमि वाले बाग में सफलता पूर्वक किया जा सकता है। टपक सिंचाई का आविष्कार इजरायल में किया गया था। इस विधि में जल की खपत बहुत कम होती है किंतु लागत अधिक आती है। यह विधि फल वृक्षों की सिंचाई के लिए  उन स्थानों पर अधिक उपयुक्त होती है जहां पर पानी की उपलब्धता कम होती है ।

फुहार विधि

पौधों पर पानी का छिड़काव कर सिचाई करने को फुहार विधि कहते हैं। फुहारे की स्थापना में प्रारंभिक लागत अधिक आती है। यह विधि  भी ऊंची नीची भूमि पर अपनाई जा सकती है। इस विधि से लान, छोटे पौधों तथा फूलों की सिचाई सफलतापूर्वक की जा सकती है। इस विधि में पानी अधिक लगता है।

नमी संरक्षण

जल प्रबंधन की यह एक महत्वपूर्ण तकनीक होती है जिसमें मृदा में उपलब्ध जल का इस प्रकार से प्रबंधन किया जाता है कि जल का अधिकाधिक उपयोग पौधे कर सके तथा वाष्पन द्वारा पानी की क्षति कम से कम हो। नमी संरक्षण की तकनीक अपनाकर सिंचाई की आवश्यकता को कम किया जा सकता है तथा उन स्थानों पर केवल वर्षा  के सहारे फसलों की खेती की जा सकती है जहां सिंचाई की सुविधा किन्हीं कारणों से उपलब्ध नहीं होती है। औद्यानिक फसलों में मृदा संरक्षण की निम्नलिखित विधियां अपनाई जा सकती हैं-
  •         कार्बनिक जैसे गोबर या कंपोस्ट की सड़ी हुई खाद जैविक तथा हरी खाद खेतों में अधिकाधिक प्रयोग करने से भूमि की भौतिक दशा में सुधार होता है तथा मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ जाती है जिसके कारण मृदा में नमी अधिक समय तक बनी रहती है और सिंचाई की अपेक्षाकृत कम आवश्यकता पड़ती है।
  •         बाग में मल्चिंग विधियों को अपनाकर नमी को संरक्षित किया जा सकता है। इस विधि में हल्की गुड़ाई कर दी जाती है अथवा भूमि को सूखी पत्तियों पुआल या भूसे  की मोटी परत से ढक दिया जाता है जिससे नमी का क्षरण कम हो जाता है। मल्च की मोटाई कम से कम 4 इंच रखी जाती है। पॉलिथीन सीट का प्रयोग भी मल्चिंग के लिए किया जा सकता है जिसे वर्षा  प्रारंभ हो जाने पर खेत से हटाना आवश्यक होता है।

जल निकास

अधिक पानी अथवा जल भराव होने पर औद्यानिक फसलों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। बाग में किसी भी दशा में जल भराव नहीं होने देना चाहिए और जल निकास की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।
औद्यानिक फसलों में सिंचाई करने के समय व पानी की मात्रा पर कई प्रकार के कारकों का प्रभाव पड़ता है उनमें से प्रमुख कारकों का उल्लेख यहां पर किया जा रहा है-

मृदा की किस्म

यदि मृदा बलुई  हल्की है तो बार बार सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है जबकि अपेक्षाकृत भारी व जीवांश से युक्त मृदा में सिचाई की कम आवश्यकता पड़ती है और दो सिचाई के बीच में अधिक अंतर रखा जा सकता है।

पौधों का प्रकार

बड़े व चौड़ी पत्ती वाले पौधों में अधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है इसी प्रकार गहरी जड़ों वाले वृक्षों में उथली जड़ों वाले फल वृक्षों की अपेक्षा कम सिंचाई की आवश्यकता होती है।

वृद्धि की अवस्था

वानस्पतिक वृद्धि, फल बनने व बढ़ने के समय, फल वृक्षों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है।

ऋतु का प्रभाव

सूर्य के प्रकाश की तीव्रता अधिक होने, तापमान तथा हवा का वेग अधिक होने पर वाष्प उत्सर्जन  तीव्र होगा और अधिक सिंचाई की आवश्यकता होगी इसी कारण ग्रीष्म ऋतु में, शरद् ऋतु की अपेक्षा अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है।

प्रवर्धन तकनीक

इन सीटू या यथा स्थान पर प्रवर्धन होने की दशा में सिंचाई की कम आवश्यकता होती है क्योंकि यथा स्थान पर प्रवर्धन होने पर मूल वृंत की जड़ों की क्षति नहीं होती है और वह गहरी जाती हैं।

प्रमुख फल वृक्षों में सिंचाई का समय

  1. सभी नए रोपित फल वृक्षों की रोपाई के तत्काल बाद सिंचाई कर देनी चाहिए। इसके बाद गर्मियों में 15 दिनों के अंतर पर तथा सर्दियों में 10 दिनों के अंतर पर वृक्षों के जड़ पकड़ लेने तक सिचाई करते रहना अति आवश्यक होता है।
  2. आंवला में फल लगने के बाद से वर्षा होने तक सिंचाई करते रहना चाहिए। इसके बाद एक-एक सिंचाई अक्तूबर-नवंबर तथा दिसंबर में भी कर देना चाहिए।
  3.   बेर  में मई, नवंबर, दिसंबर या जनवरी में पानी देना चाहिए।
  4.   अनार में नवंबर व दिसंबर में पानी नहीं देना चाहिए इसके बाद जनवरी से मई तक सिंचाई करते रहना चाहिए।
  5. आम व नीबू में फल टिकने  के बाद फल परिपक्वता तक महीने में एक बार सिंचाई करना चाहिए।
  6.  केले में गर्मियों में एक सप्ताह के अंतराल पर तथा सर्दियों में 2 सप्ताह के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए।
  7.   अमरूद में यदि बरसात की फसल नहीं लेनी है तो अप्रैल- मई माह में सिंचाई नहीं करना चाहिए यदि बरसात की फसल वांछित हो तो 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें। शरद् ऋतु की फसल लेने हेतु अक्टूबर से जनवरी तक 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।


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