अश्वगंधा एक महत्वपूर्ण औषधि है जिसका
वैज्ञानिक नाम विदानिया सोमनिफेरा (Withania somnifera) है। यह एक अच्छी
औषधीय नकदी खरीफ की फसल है। इसका पौधा बहुवर्षीय, झाड़ीनुमा, कई शाखा वाला तथा 30 से 100 से.मी. तक लम्बा
हो सकता है। इसके पत्ते अण्डाकार
रोमयुक्त होते हैं और बैगन के पत्तों से मिलते जुलते हैं। हल्की वर्षा वाले क्षेत्रों
में इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है जिसके कारण इसका महत्व और बढ़ जाता है। इस लेख में सम्मिलित विषय(toc)
अश्वगंधा बीज |
अश्वगंधा की खेती भारत के राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हिमाचल प्रदेश राज्यों
में बड़े पैमाने पर होती है। मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ भागों में व्यावसायिक
स्तर पर इस फसल की खेती की जाती है और सम्पूर्ण देश में इसकी व्यावसायिक आपूर्ति होती
है।
औषधीय महत्व
अश्वगंधा के पौधे विशेष रूप से सूखी जडें आयुर्वेदिक तथा यूनानी औषधियों के बनाने में प्रयोग होती हैं। अश्वगंधा की जड़ों से विविध आयुर्वेदिक योग एवं दवाइयां निर्मित की जाती है उनमें से अश्वगंधारिष्ट एक है। इसकी 8 से 10 ताजी पत्तियों को प्रातः खाली पेट चबाने से मोटापा कम करने में सहायता मिलती है। इनकी जड़ों में स्टार्च, शर्करा व प्रोटीन पाई जाती है साथ ही हेन्ट्एिकोन्टेन, एल्केलाइड्स, विदनियोल अम्ल व कुछ मुक्त अमीनो अम्ल भी पाये जाते हैं। पत्तियों में लगभग 12 प्रकार के विदानोलाइड्स पाये जाते हैं जिनमें विदाफेरिन-ए सबसे महत्वपूर्ण है। अश्वगंधा में एन्टीबायोटिक व एन्टीट्यूमर गुण भी होते हैं। इसकी जड़ों का महत्व उसमें पाये जाने वाले पादप रसायनों के कारण है। जड़ों में 0.13 से 0.31 प्रतिशत तक एल्केलाइड की सांद्रता पाई जाती है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण विदानिन एल्केलाइड है जो कुल एल्केलाइड का 35 से 40 प्रतिशत तक होता है। इसके अतिरिक्त जड़ों में सोमनेफेरिन, सोमिन, विदानिन सहित लगभग 13 एल्केलाइड्स और पाये जाते हैं।
भूमि
अश्वगंधा की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई, बलुई दोमट अथवा लाल मिट्टी सर्वोत्तम होती है। मिट्टी का
पी0 एच0 मान 7.0 से 8.0 होना चाहिये। भूमि में नमी कम होने पर बुवाई से
पूर्व पानी लगा कर खेत को नमी युक्त बना लेना चाहिए। खेत की मिट्टी उचित नमी के
साथ-साथ भुर भुरी होने पर बीज का अंकुरण अच्छा होता है।
जलवायु
शुष्क कृषि हेतु अश्वगंधा उपयुक्त
औषधीय फसल है। रबी पूर्व या शरद् ऋतु में वर्षा होने पर इसकी जड़ों में वृद्धि तथा
पैदावार में गुणात्मक सुधार आ जाता है। अश्वगंधा को एक पछेती खरीफ फसल के रूप में जाना जाता है जिसे 650 से 750 मि0मी0 वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा
सकता है। इसकी अच्छी फसल के लिए बुवाई के समय शुष्क मौसम तथा मिट्टी में पर्याप्त नमी
होनी चाहिए।
उन्नत प्रजातियां
अश्वगन्धा की दो डब्लू0 एस0 20 तथा डब्लू0
एस0 134 उन्नत विकसित की गई हैं जो सभी प्रकार की वातावरणीय परिस्थतियों में
सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। इन प्रजातियों को केन्द्रीय सगन्ध पौध एवं औषधीय संस्थान (सीमैप), लखनऊ तथा देश के कुछ कृषि विश्व
विद्यालयों से प्राप्त किया जा सकता है।
बीज दर व बीजोपचार
अश्वगन्धा की खेती के लिए 6 से 8 किलोग्राम
बीज प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यक होता है। बीज को बोने से पूर्व बाबिस्टीन नामक
फफूंद नाशक दवा से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए। उपचारित करने से बीज से फैलने वाले
फुफॅूदी जनित रोगों की रोकथाम हो जाती है।
बुआई का समय तथा विधियां
अश्वगन्धा के बीज की बुवाई सितम्बर के
अन्तिम सप्ताह में कर देनी चाहिए। अश्वगन्धा की बुआई दो प्रकार से की जा सकती हैः
पंक्तियों में बुआई
इस विधि से बुवाई करने के लिए खेत में कूड़
तैयार कर लेते हैं और 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बीजों की बुवाई कर देते हैं। कूड़
से कूड़ की दूरी 30 सेंटीमीटर होती है। बुवाई के तुरन्त बाद पाटा चला देते हैं ताकि
नमी बनी रहे और बीजों का उचित जमाव हो सके।
छिटकवाँ बुआई
इस विधि में तैयार खेत में कल्टीवेटर
द्वारा हल्की जुताई करने के बाद बीज में आधा रेत मिला कर बीज को खेत में छिटक कर
बिखेर देते हैं और हल्का पाटा चला देते हैं। बीज का अंकुरण 7 से 10 दिनों में हो
जाता है। इस विधि से बुवाई करने पर अंकुरण के बाद एक वर्ग मीटर क्षेत्रफल में 75 पौध
रखना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक
उन औषधीय फसलों में जिनकी जड़ों का
प्रयोग किया जाता है, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग
नहीं करना चाहिए। परीक्षणों से पाया गया है कि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से फसलों की जड़ों के उत्पादन में कोई विशेष
वृद्धि नहीं होती है। अतः किसी रासायनिक उर्वरक के प्रयोग की संस्तुति नहीं की
जाती है। खेत की तैयारी
करते समय सड़ी गोबर की खाद या अन्य जैविक खादों का
प्रयोग लगभग 5 से 6 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अवश्य करना चाहिए।
सिंचाई
अश्वगंधा वर्षा ऋतु की फसल होने के
कारण इसमें सिचाई की आवश्यकता नहीं के बराबर होती है। नमी की बहुत कमी की दशा में सिचाई
करना अनिवार्य होता है लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत में जल भराव किसी भी दशा में न होने पाये। जल
भराव से जड़ों की वृद्धि विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा जड़ें सड़ने लगती है जिसके फलस्वरूप
पौधे मरने लगते हैं और जड़ों की गुणवत्ता भी कम हो जाती है। अतः हल्की सिंचाई करनी
चाहिए। इसकी खेती सिंचित व असिंचित दोनों दशाओं में की जा सकती है। सिंचित दशा में
खेती करने पर एक सिंचाई बुवाई के लगभग 45 दिनों बाद कर देनी चाहिए। असिंचित खेती करने पर जड़ों
की बढ़ वार अधिक होती है क्योंकि जड़ें पानी की खोज में सीधी बढ़ती हैं और शाखा रहित
रहती हैं।
निराई-गुड़ाई
बुआई से लगभग 50 दिनों बाद एक बार निराई
-गुड़ाई अवश्य करना चाहिये क्योंकि इसी समय पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौध से पौध की दूरी 5 सेंटीमीटर कर दी जाती है।
जड़ों की खुदाई
जब फल नारंगी होने लगें, पौधों की निचली
पत्तियाँ पीली पड़ने लगे, जड़ों में रेशे न हों और जड़ें तोड़ने पर मूली की भाँति टूटने
लगें तब यह समझें कि फसल खुदाई योग्य हो गयी है। जड़ें रेशेदार हो जाने पर उनकी
गुणवत्ता में कमी आ जाती है। खुदाई की अवस्था के आने में बुवाई से 135 से 165 दिनों
का समय लगता है। खुदाई के समय पौधों को जड़ सहित उखाड़ लिया जाता है परन्तु जड़ें
गहरी होने पर जड़ों को जुताई करके निकालते हैं। जड़ों को काट कर पौधों से अलग कर छोटे-छोटे
टुकड़ों में करके सुखा लेना चाहिए।
उपज
वैज्ञानिक विधि से उन्नत प्रजातियों की
खेती करने पर लगभग 7 से 8 कुन्तल प्रति हेक्टेयर सूखी जड़ें प्राप्त हो जाती हैं । बीज
के लिए फसल की खुदाई नहीं करनी चाहिए और जब पौधों के अधिकतर बेरी (फल) नारंगी रंग
के हो जायें तब कटाई कर लेते हैं और सुखाने के बाद बीज निकाल लेते हैं।