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जलवायु Climate for sheeshum
शीशम उष्ण कटिबंधीय जलवायु का वृक्ष है जो 50 डिग्री सेल्सियस से 4 डिग्री सेल्सियस का तापमान सहन कर सकता है । यह 750 से 1500 मिली मीटर वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र में सफलतापूर्वक उग सकता है ।यह वृक्ष गंगा के मैदानी क्षेत्रों से लेकर हिमालय क्षेत्र में 1500 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में देखा जा सकता है ।नदी के किनारे जिन क्षेत्रों में प्रायः वर्षा ऋतु में जल भराव हो जाता है वहां पर भी शीशम के पौधे उगे हुए देखे जा सकते हैं ।
भूमि Soil for Sheeshum
शीशम के लिए रेतीली दोमट भूमि उपयुक्त होती है ।इस का पौधा बीहड़ों की कटी मृदा में भी भली प्रकार उगाया जा सकता है ।
प्रवर्धन की विधियां Propagation of Sheeshum
शीशम का प्रवर्धन बीज की सीटें बुवाई‚ पौध रोपण तथा स्टम्प द्वारा किया जाता है। इन सभी तरीकों में स्टम्प रोपण की विधि अच्छी मानी जाती है। बीज प्रमाणित संस्थाओं से क्रय करना चाहिए। शीशम की पौध की नर्सरी तैयार करने हेतु बलुई दोमट मिट्टी का चुनाव करना चाहिए । नर्सरी में सिंचाई व जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । जल निकास हेतु 15 सेंटी मीटर ऊंची क्यारी बनाई जा सकती है। बुआई से पूर्व शीशम के बीज को 24 घंटे के लिए पानी में भिगोकर रख देने से बीज का अंकुरण अच्छा होता है । क्यारियां बनाकर वर्षा ऋतु प्रारंभ होने से पहले बीज की बुआई कर दी जाती है और आवश्यकतानुसार नर्सरी की हजारे द्वारा सिचाई की जाती रहती है। वर्षा प्रारंभ होने तक बीज अंकुरित होकर 15 से 25 सेंटीमीटर तक हो जाते हैं इसके बाद बीज को पॉलिथीन की थैलियों में जिसमें मिट्टी भरी हो प्रतिरोपित कर दिया जाता है और आवश्यकतानुसार सिंचाई कर दी जाती है । पॉलिथीन की थैलियों में पौध तैयार हो जाती है और इस तैयार पौध को आवश्यकता अनुसार पौध लगाने के स्थान पर रोपण कर दिया जाता है । स्टम्प द्वारा प्रवर्धन करने के लिए तैयार शीशम के पौध से स्टम्प बनाकर उनका रोपण किया जाता है । इसके लिए पहले वर्ष बीज की बुआई नर्सरी में की जाती है और पौध तैयार किया जाता है। दूसरे वर्ष जून के महीने में पौधों को जड़ सहित खोद कर बाहर निकाल लिया जाता है इसके बाद जहां पर जड़ और तना मिलते हैं उस स्थान से लगभग 20 सेंटीमीटर की जड़ छोड़कर शेष जड़ काट कर फेंक दी जाती है और उसी स्थान से 2 सेंटीमीटर तना छोड़कर बाकी का तना काट कर फेंक दिया जाता है । जिस स्थान पर जड़ और तना मिलते हैं उस स्थान को कालर कहते हैं। इस प्रकार से तैयार किया गया स्टम्प गीले बोरे या कपड़े में लपेटकर ले जाया जाता है। वृक्षारोपण के स्थान पर जड़ को मिट्टी में खोदकर रोप दिया जाता है और आवश्यकतानुसार सिंचाई कर दी जाती है । इसके अतिरिक्त शीशम के बीज की सीधी बुवाई रोपण वाले खेत में की जा सकती है। बीज की बुआई नाली बनाकर कतार में किया जाता है इसके लिए 3 से 10 मीटर की दूरी पर नाली बना दी जाती है और उसमें बीज की बुवाई वर्षा प्रारंभ होने से पहले कर दी जाती है और आवश्यकतानुसार सिंचाई की जाती है।
रोपण की विधियां और दूरी Transplanting of sheeshum
शीशम के पौधे का रोपण 30 सेंटी मीटर लंबे‚ 30 सेंटीमीटर चौड़े तथा 30 सेंटीमीटर गहरे गड्ढे बनाकर वर्षा ऋतु में किया जाता है। कतार से कतार की दूरी 3 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 3 मीटर रखी जाती है। स्टंप रोपण यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है तो वर्षा प्रारंभ होने पर किया जाता है। स्टंप का रोपण डंडे की सहायता से खांचे बनाकर उस में किया जाता है अथवा नालियां बनाकर नालियों के ऊपरी हिस्से पर तिरछा करके स्टंप लगा दिया जाता है । नालियों के बीच की दूरी 3 मीटर तथा स्टम्प के बीच की दूरी 2 मीटर रखी जाती है। स्टंप लगाने के बाद सिंचाई की जाती है । यदि शीशम को खेत की मेड़ के ऊपर लगाना हो तो पौधे से पौधे की दूरी 4 मीटर रखना चाहिए । शीशम को धान तथा गेहूं के खेतों की मेड़ों पर सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
पौधों का रखरखाव तथा कटाई व छँटाई Training, Pruning and care of sheeshum
सीधे बीज द्वारा बुवाई करने पर निकाई की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा अनावश्यक खरपतवार निकाल दिए जाते हैं साथ ही साथ पौध से पौध के बीच की दूरी ठीक कर दी जाती है। आम तौर पर साल में 2 से 3 निराई करना पर्याप्त होता है । पौधा रोपण के 3 वर्ष बाद सामान्यतः निराई की कोई जरूरत नहीं होती है । अच्छी गुणवत्ता वाली इमारती लकड़ी प्राप्त करने के लिए शीशम में छँटाई किया जाना अति आवश्यक है । शीशम के पेड़ से जो अनावश्यक शाखाएं मुख्य तने से निकलती हैं छँटाई द्वारा काट कर हटा दिया जाता है। शीशम के पेड़ में 6 वर्ष पर ‚12 वर्ष पर तथा 18 वर्ष पर छँटाई करना चाहिए जिससे वृक्षों का अधिक विकास हो सके और अच्छी इमारती लकड़ी प्राप्त की जा सके।
रोग व कीट प्रबंधन Disease and Pest Management of Sheeshum
पेड़ों का सुखना Wilting of sheeshum tree
यह एक कवक जनित रोग है जो मृदा में पाए जाने वाले नामक कवक द्वारा होता है जो शीशम के पेड़ों की जड़ों के रास्ते पेड़ में पहुंच जाता है जिसके कारण पत्ते और टहनियां मुरझाने लगती हैं‚ लकड़ी के बाहरी भाग पर गुलाबी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और अंत में शीशम का पेड़ मर जाता है । यह कवक बड़े शीशम के वृक्ष‚ जिनकी उम्र 15 से 20 वर्ष होती है‚ को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है । इसका कवक जमीन में पाया जाता है जिसके कारण एक पौधे से दूसरे पौधों में फैल जाता है और एक एक करके बड़े पेड़ सूखने लगते हैं । इसके नियंत्रण के लिए शीशम के वृक्ष ऐसे स्थान पर लगाने चाहिए जहां पर जल भराव ना होता हो तथा मिट्टी दोमट रेतीली हो। जहां पर इसका प्रकोप हो गया हो उस जमीन में दुबारा शीशम का पेड़ नहीं लगाना चाहिए।
पत्ती खाने वाला कीट Leaf eating insect of sheeshum
यह कीट शीशम के पेड़ की पत्तियों को खा जाता है जिसके कारण पौधे पर्याप्त भोजन नहीं बना पाते हैं और उनकी वृद्धि प्रभावित होती है । कभी कभी पौधे मर भी जाते हैं। इस कीट के नियंत्रण के लिए स्टम्प का रोपण करना चाहिए जिसके कारण शुरुआती वर्षों में पौधे की बढ़वार अच्छी होती है और इसकी कीट का असर कम हो जाता है।
पेड़ों की कटाई Harvesting of sheeshum tree
इमारती लकड़ी के रूप में प्रयोग करना हो तो शीशम के पेड़ों की कटाई 20 से 25 वर्ष की आयु होने पर करना चाहिए इससे पहले पेड़ों की कटाई करने पर लकड़ी की गुणवत्ता अच्छी नहीं रहती है।
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