आंवला भारतीय मूल का फल है। ऐसी बंजर व
क्षारीय मृदा जिस पर अन्य फलों की सफल बागवानी प्रायः कठिन होती है उस पर भी आंवला
की लाभकारी बागवानी की जा सकती है। उत्तरी भारत में आंवले में फरवरी-मार्च में फूल
आकर फल लग जाते हैं और फल सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जुलाई-अगस्त में वर्षा
प्रारम्भ होने पर नई पत्तियां निकलने के साथ ही फलों की वृद्धि होती है जिन्हें
दिसम्बर-जनवरी में तोड़ा जा सकता है। आंवला की यह विशेषता पौधों को ग्रीष्म ऋतु में
जलाभाव के अनुकूल बना देती है जिससे असिंचित दशा में भी पेड़ सूखने की सम्भावना
नगण्य रहती है। दक्षिण भारत की उष्णकटिबंधीय जलवायु में आंवला वर्ष में दो बार फलता
है जिससे स्पष्ट होता है कि आंवले में जलवायु परिवर्तन के अनुसार अनुकूलन की
क्षमता है। इसका फल विटामिन सी का अच्छा स्रोत है। आयुर्वेदिक एवं यूनानी दवाओं
में इसका प्रयोग प्राचीन काल से हो रहा
है। त्रिफला एवं च्यवानप्राश में यह प्रमुख अवयव है। फल में खनिज लवण तथा पेक्टिन भी पर्याप्त होता है।
एन्टी आक्सीडेन्ट गुणों के कारण आंवला स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है किन्तु फलों में फेनालिक योगिक विद्यमान होने के कारण इसका स्वाद कसैला होता है जिससे इसके ताजे फल का सेवन कम होता है परन्तु इस फल से
जैम, मुरब्बा, आचार, चटनी, कैण्डी, स्क्वैश, शेरेड्स आदि प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ
बनाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त
आंवला की मांग सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग में भी है। इन्हीं गुणों के कारण इसकी बागवानी का विस्तार उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु आदि राज्यों में निरन्तर हो रहा है। आंवले का निर्यात भी होने लगा है। तोड़ाई के बाद अवैज्ञानिक विधि अपनाये जाने के कारण आंवला की लगभग एक चैथाई उपज उपभोक्ताओं तक पहुंचने से पहले ही नष्ट हो जाती है। फलों को नष्ट होने से बचाने में उतनी मात्रा में फलों के अतिरिक्त उत्पादन करने की अपेक्षा लागत व समय कम लगता है। पराउपज प्रबंधन की वैज्ञानिक विधि अपनाकर फलों की क्षति को कम किया जा सकता है।
आंवला की मांग सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग में भी है। इन्हीं गुणों के कारण इसकी बागवानी का विस्तार उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु आदि राज्यों में निरन्तर हो रहा है। आंवले का निर्यात भी होने लगा है। तोड़ाई के बाद अवैज्ञानिक विधि अपनाये जाने के कारण आंवला की लगभग एक चैथाई उपज उपभोक्ताओं तक पहुंचने से पहले ही नष्ट हो जाती है। फलों को नष्ट होने से बचाने में उतनी मात्रा में फलों के अतिरिक्त उत्पादन करने की अपेक्षा लागत व समय कम लगता है। पराउपज प्रबंधन की वैज्ञानिक विधि अपनाकर फलों की क्षति को कम किया जा सकता है।
परिपक्वता पर तुड़ाई
अपरिपक्वता तथा अधिक परिपक्वता दोनों
ही दशाओं में फलों की तुड़ाई करने पर उसकी गुणवत्ता व भण्डारण क्षमता घट जाती है।
किसी फल की परिपक्वता प्रजाति, जलवायु, मृदा, सस्य क्रियायें, रसायनों के छिडकाव आदि से प्रभावित
होती है। उत्तर भारत में आंवला की अगेती प्रजातियां-बनारसी, कृष्णा, नरेन्द्र आंवला-10 नवम्बर में तथा मध्य प्रजातियां- नरेन्द्र
आंवला-6, नरेन्द्र आंवला-7,नरेन्द्र आंवला-8, कंचन दिसम्बर में और पछेती
प्रजाति-चकैया जनवरी माह में तुड़ाई हेतु परिपक्व हो जाती हैं। परिपक्व फल पानी में
डूब जाते हैं। पेड़ से कुछ फल तोड़कर पानी में डालकर देख लेना चाहिये और
परिपक्वता होने पर तुड़ाई कर लेना चाहिए।
तुड़ाई विधि
चोट व खरोंच लग जाने से फलों की
गुणवत्ता व भण्डारण क्षमता कम हो जाती है। आंवला फल की तुड़ाई पेड़ अथवा डाल को
हिलाकर नहीं करना चाहिये क्योंकि गिरने से फलों में चोट लग जाती है। फलों को पेड़
पर चढ़कर या सीढ़ी लगाकर हाथ से तोड़ना चाहिये और रस्सी के सहारे बैग लटकाकर नीचे
उतारना चाहिये। नीचे किसी छायादार स्थान पर श्रेणीकरण हेतु एकत्र करना चाहिये।
श्रेणीकरण
फलों का श्रेणीकरण कर बेचने से अच्छा
मूल्य प्राप्त होता है तथा दागी फल अलग हो जाने से अच्छे फलों के खराब होने की
सम्भावना कम होती है। आंवला के फल को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
श्रेणी-एक में वे फल रखे जाते हैं जिनका व्यास 4 सेमी0 से अधिक होता है और रोग, धब्बों व खरोंच से मुक्त होते हैं। श्रेणी-दो में 4 सेमी0 से कम व्यास वाले रोग, धबों व खरोंच से मुक्त फल रखे जाते हैं
और दागी व कटे-फटे फलों को श्रेणी-तीन में रखा जाता है। श्रेणी-तीन के फलों को अतिशीघ्र
उपयोग अथवा प्रसंस्कृत करना उपयुक्त होता है। श्रेणीकरण हाथ से किया जाता है
किन्तु इस कार्य हेतु 4 सेमी0 व्यास के छल्ले का प्रयोग किया जा
सकता है।
पैकिंग एवं परिवहन
आंवला को प्रायः 40-50 किलाग्राम की क्षमता वाले बोरे अथवा
टोकरियों में पैककर ट्रक से परिवाहन किया जाता है जिसमें फलों की क्षति अधिक होती है।
क्षति को कम करने तथा गुणवत्ता बनाये रखने के लिए फलों को 25 किलाग्राम क्षमता के प्लास्टिक कैरेट्स
अथवा कागज का स्तर लगी टोकरियों में पैक करना चाहिये। फल को ढीला नहीं पैक करना
चाहिये अन्यथा परिवाहन के समय रगड़कर फल क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और कुछ समय बाद
सड़ने लगते हें। परिवाहन हेतु प्लास्टिक की कैरेटों में पैकिंग ज्यादा उपयुक्त रहती
है क्योंकि इससे एक के ऊपर एक कैरेट लादने में फलों पर भार नहीं पड़ता है जिससे
क्षति कम होती है।
भण्डारण
आंवला के फलों को हवादार कमरे में 7 दिनों तक भण्डारित किया जा सकता है।
जबकि शून्य ऊर्जा प्रशीतन कक्ष में 18 दिनों तक फलों को रखा जा सकता है। फलों को 15 प्रति शत नमक के घोल में रखने से 2 माह तक खराब नहीं होते है। नमक के घोल
में भण्डारण प्रसंस्करण इकाईयों के लिये उपयुक्त होता है।
रोग प्रबंधन
भण्डारण व परिवाहन में आंवला फलों की
क्षति पेनीसिलियम नामक फफूंद के प्रकोप से होती है जिसमें नीले-हरे रंग के गहरे
धब्बे फलों पर पड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिये फलों को 4 प्रति शत नमक के घोल में 8-10 घण्टे के लिये डुबोकर उपचारित करने के बाद ही भण्डारित करना चाहिये।