पिप्पली (Piper Loongum L.)का उत्पत्ति स्थान इंडोनेशिया तथा मलेशिया है। यह वनस्पति भारत, नेपाल, श्रीलंका आदि देशों के जंगलों में भी पायी जाती है। भारत में इसकी विधिवत खेती महाराष्ट्र, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, उड़ीसा, आसाम तथा पश्चिम बंगाल में की जा रही है। वर्तमान में महाराष्ट्र के अकोला तथा अमरावती जिलों में इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है। मध्यप्रदेश में भी इसकी खेती प्रारम्भ हो चुकी है तथा इसके प्रारम्भिक परिणाम काफी उत्साहजनक हैं। उत्तर प्रदेश में बागों में दो पौधों के मध्य इसकी खेती की प्रबल सम्भवनायें हैं।
पिप्पली का औषधीय गुण
पिप्पली का उपयोग औषधि के अतिरिक्त मसालों के निर्माण में भी किया जाता है। पिप्पली के तने, मूल और फलों का उपयोग बहुत पुराने समय से आयुर्वेदिक तथा यूनानी दवाओं के निर्माण में हो रहा है। मुख्यतया पिप्पली का उपयोग सर्दी, खांसी, दमा, अस्थमा, ब्राॅन्काइटिस, वात, मेदरोग, कुष्ठरोग, अपचन, पीलिया तथा जुकाम की दवा बनाने में किया जाता है। यह मूलतः अग्निदीपक (पाचन शक्ति बढ़ाने वाली), वृष्य पाक होने पर मधुर रसयुक्त तथा कफनाशक होती है। यह रेचक अर्थात् मल निकालने वाली तथा श्वास रोग, उदररोग, ज्वर, बवासीर, प्लीहा, शूल एवं आमवात नाशक होती है। कच्ची अवस्था में लेने पर यह कफहारी, स्निग्ध, शीतल, भारी तथा पित्तनाशक होती है। परन्तु सूखी अवस्था में लेने पर यह पित्त को कुपित करती है। शहद के साथ लेने पर यह मेद, कफ, श्वास और ज्वर का नाश करती है। गुड़ के साथ लेने पर यह पुराने ज्वर और अग्निमांध में लाभ करती है तथा खांसी, अजीर्ण, अरूचि, श्वास हृदय रोग, पान्डुरोग, कृमि को दूर करने वाली होती है।
पिप्पली के लिए भूमि एवं जलवायु
पिप्पली की खेती के लिए, लाल मिट्टी वाली बलुई दोमट से लेकर मध्यम भारी एवं उत्तम जल निकास वाली भूमि अति उत्तम होती है। इसकी खेती के लिए उष्ण तथा अधिक आर्द्रता धारण करने वाले क्षेत्र ज्यादा उपयुक्त होते हैं। जिन स्थानों पर पान की खेती होती है, वे इसकी खेती के लिए काफी उपयुक्त होते हैं।
पिप्पली के लिए खेत की तैयारी
पिप्पली की फसल एक बार रोपने के बाद तीन से पांच वर्ष तक चलती है। जिस खेत में पिप्पली की खेती करना हो उसकी बिजाई से पूर्व दो-तीन बार कल्टीवेटर एवं हैरो से जुताई करके खेत को अच्छी तरह भुरभुरा बना लेना चाहिए। खेत समतल होना चाहिए जिससे जल निकास अच्छी तरह से हो सके। धूप एवं पाले से बचने के लिए खेत के चारों तरफ घास-फूस की टट्टी बना देनी चाहिए।
पिप्पली की प्रजातियां
पिप्पली की मुख्य रूप से दो प्रकार की प्रजातियां प्रचलित हैं- बड़ी पिप्पली तथा छोटी पिप्पली, परन्तु भाव प्रकाश निघन्टु में पिप्पली की चार प्रजातियां वर्णित हैं- 1. पिप्पली 2. गजपिप्पली 3. सिंहली 4. वन पिप्पली।
पिप्पली के पौधों का प्रवर्धन
पिप्पली के पौधों का प्रवर्धन इसकी शाखाओं द्वारा किया जाता है। इसके पौधों का प्रवर्धन रोपणसमय से 2-3 माह पूर्व करना चाहिए। इसके पौधे फरवरी-मार्च में 8×15 सें.मी. की पालीथीन की थैलियों में शाखा कलम द्वारा तैयार किये जाते हैं। प्रत्येक शाखा कलम 8-10 सें.मी. लम्बी, 3-6 आंॅख वाली तथा 2 से 3 पत्ती युक्त होनी चाहिए। पालीथीन की थैलियों में लगाने से पूर्व उनमें रूटेक्स हार्मोन लगाना आवश्यक होता है। नर्सरी छायादार स्थान पर तैयार करनी चाहिए। नर्सरी की प्रतिदिन हल्की सिंचाई करना आवश्यक है। इसकी कलमों का रोपण प्रायः महाशिवरात्री पर्व से प्रारम्भ हो जाता है।
पिप्पली के रोपण का तरीका
पौधों के रोपण के लिए 1.5×3.0 मी. चैड़ी क्यारियां तैयार कर ली जाती हैं। इन क्यारियों में सिंचाई व जल निकास की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। प्रत्येक क्यारी में जोड़ी की दो पंक्तियां 60 ग 60 सें.मी. की दूरी पर बनायी जाती हैं। नर्सरी में तैयार किये गये पौधे को पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 ग 60 सें.मी. तथा पौध से पौध की दूरी 30×30 सें.मी. पर रोपित किया जाता है। प्रत्येक स्थान पर दो से तीन पौधों का रोपण किया जाता है। एक हैक्टेयर क्षेत्र में लगभग 1.2 से 1.5 लाख कलमें लगायी जाती हैं। कलमों की बाजार दर 400 रू0 प्रति हजार कलम है। कलमों की रोपाई के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। पिप्पली की लताओं को सहारा देने के लिए सूखी झाड़ियों का उपयोग किया जाता है तथा इसके अतिरिक्त रोपाई के समय प्रत्येक पौधे के साथ एरंड, पांगरा, अथवा अगस्ती के बीज भी बोये जा सकते हैं जिससे पिप्पली की बेलें उन पर चढ़ सकें।(ads1)
पिप्पली के लिए खाद एवं उर्वरक
खेत की तैयारी के समय 20-25 टन गोबर की खाद के साथ नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस, तथा पोटाश 20ः40ः40 प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए। पौधों की रोपाई के एक माह पश्चात प्रति हैक्टेयर की दर से 100 किग्रा. डायअमोनियम फाॅस्फेट (डी. ए. पी.) और जुलाई-अगस्त में 40 किग्रा0 डी. ए. पी. प्रति हैक्टेयर की दर से देना अधिक उपज के लिए उपयुक्त रहता है। हर साल वर्षा ऋतु के पूर्व सिंचाई के समय 20 टन गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए।
पिप्पली की सिंचाई
पिप्पली के पौधों की समुचित वृद्धि के लिए आवश्यकतानुसार 3 से 5 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
पिप्पली के कीट एवं रोग का उपचार
पिप्पली के पौधों को कीड़ों के द्वारा कोई क्षति नहीं होती। इसकी फसल केवल ब्लाईट द्वारा प्रभावित होती है। ब्लाईट की रोकथाम के लिए बोर्डो मिक्चर एक प्रतिशत तथा ब्लायटाॅक्स 2 से 2.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में डालकर छिड़काव करना चाहिए।
पिप्पली की फसल की कटाई
पिप्पली के रोपण के चार से पाँच माह बाद लताओं में फूल आने लगते हैं तथा अक्टूबर-नवम्बर में पिप्पली के फल परिपक्व हो जाते हैं। फल वर्ष में एक बार ही आते हैं। प्रतिवर्ष 4-5 सप्ताह तक फलों की तुड़ाई तकरीबन तीन से पाँच साल तक मिलती रहती है। फल लेने के बाद पौधों की कटाई कर दी जाती है तथा कुछ समय बाद पत्तियां पुनः आनी शुरू हो जाती हैं। कटी हुई टहनियों को नयी फसल के लिए कलमों के रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता है।
पिप्पली की उपज
पिप्पली की खेती से प्रति एकड़ औसत 4 से 6 क्विंटल सूखी पिप्पली के फल प्रतिवर्ष प्राप्त होते हैं। फलों का उत्पादन 3-5 साल तक मिलता रहता है। पाँच वर्षों के उपरान्त पिप्पली की जड़ों (मूल) को भी उखाड़ कर बेंचा जा सकता है। पाँचवें वर्ष में लगभग एक क्विंटल सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं। जिनका बाजार मूल्य लगभग 15,000 रूपये प्रति क्विंटल है। आन्ध्र प्रदेश और विशाखापट्टनम में इसकी खेती केवल जड़ों के लिए भी की जाती है।