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कालमेघ (Andrographis paniculata), Green Chiretta, King of Bitter


कालमेघ (Andrographis paniculata) एक खरपतवार के रूप में परती जगहों पर, खेतों की मेड़ों पर उगने वाला एकेन्थेसी (Family- Acanthaceae) कुल का पौधा है जिसका मूल स्थान भारत है। यह खरीफ में उगने वाला तथा सीधा बढ़ने वाला शाकीय पौधा है जिसकी ऊँचाई 50-60 से.मी. तक होती है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में कालमेघ का प्रयोग प्राचीन काल से किया जा रहा है। इसे कल्पनाथ, करियातु, हरा चिरायता आदि नामों से भी जाना जाता है। कालमेघ में कई एल्कलायड पाये जाते हैं। जिसमें से मुख्य रूप से पाया जाने वाला एल्कलायड एन्ड्रोगे्रफियोलायड है। इसके अतिरिक्त एन्ड्रोगे्रफीन, कोलीन भी पाये जाते हैं। अधिकतम  एल्कलायड की मात्रा पौधों में फूल आने के समय पायी जाती है। अधिकतर इसे वनों से एकत्र किया जाता रहा है। वर्तमान समय में चिरायता के स्थान पर भी दवा के रूप में लोग प्रयोग कर रहे हैं। कालमेघ की खेती उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में अब धीरे-धीरे व्यावसायिक कृषि का रूप लेती जा रही है। इस पौधे की गुणवत्ता को देखते हुए इसके अधिकतम उत्पादन हेतु व्यावसायिक कृषिकरण की प्रबल आवश्यकता है।

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कालमेघ का औषधीय उपयोग

कालमेघ की पत्ती, तना, पुष्पक्रम, आदि समस्त भागों का प्रयोग औषधि के रूप में होता है। यह रक्त विकार, यकृत विकार, रक्तालपता, मलेरिया, चर्मरोग, विषाणु ज्वर एवं मधुमेह रोग के नियंत्रण हेतु बहुतायत से उपयोग किया जाता है।

कालमेघ के लिए भूमि एवं जलवायु

कालमेघ को सभी प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है किन्तु अच्छे जल निकास वाली बलुई देामट मिट्टी सर्वोत्तम होती है। भूमि का पी0एच0 मान 8.5 से अधिक नहीं होना चाहिए। कालमेघ के पौधों का समुचित विकास नम एवं आर्द्र जलवायु में होता है। यह खरीफ की फसल है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में पौधों की बढ़वार प्रभावित होती है और भरपूर उपज नहीं प्राप्त हो पाती है।

कालमेघ का प्रवर्धन

कालमेघ का प्रवर्धन बीजों द्वारा किया जाता है किन्तु बीजों की सीधी बुवाई तैयार खेत में करना लाभदायक नहीं है। अतः इसकी नर्सरी तैयार करके 40-45 दिनों की पौध का रोपण भली प्रकार से जुताई करके भुरभुरा बनाये गये खेत में करना चाहिए। 

कालमेघ की नर्सरी तैयार करना

नर्सरी डालने का कार्य मई के आखिरी सप्ताह से प्रारम्भ करके जून के प्रथम सप्ताह तक किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में रोपण हेतु 10 मी0 ग 2 मी0 नाप की तीन क्यारियों में तैयार की गयी पौध पर्याप्त होती है। 1.5 से 2.0 कि0ग्रा0 बीज की आवश्यकताप्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल के रोपण हेतु होती है। बीजों को क्यारियों पर छिटकने के बाद हल्की मिट्टी से ढ़ककर, उपयुक्त मल्च (धान का पुवाल, सरपत आदि) से ढक देना चाहिए। आवश्यकतानुसार हजारे आदि की सहायता से सिंचाई की जानी चाहिए तथा 5-7 दिनों में बीजों के अंकुरित होने पर अवरोध परत (मल्च) को सावधानीपूर्वक हटा देना चाहिए। मल्च  हटाने का कार्य सायंकाल करना चाहिए ताकि पौध तुरन्त गर्म धूप से प्रभावित न हो । स्थान उपलब्ध रहने पर आंशिक छायादार स्थानों पर नर्सरी तैयार करना उपयुक्त रहता हैं क्योंकि इस समय (मई-जून माह में) अधिक तापक्रम तथा तेज धूप के कारण पौधों के मरने की संभावना अधिक रहती है। बुवाई के 40-45 दिन उपरान्त जब पौधे 5-6 पत्तियों वाले हों जाय, रोपण हेतु उपयुक्त रहते हैं।

कालमेघ का रोपण करना

भली प्रकार से तैयार की गयी भूमि में कालमेघ के रोपण का कार्य जुलाई माह के प्रारम्भिक दिनों में किया जाता है। सामान्य उर्वरता वाली भूमि में रोपण दूरी 30×30 से0मी0 रखी जाती है। अधिक उर्वर भूमि में इसे बढ़ाया अथवा कम उर्वर भूमि में कम किया जा सकता है। रोपण कार्य अपरान्ह्न में किया जाना चाहिए तथा रोपाई के तुरन्त बाद एक सिंचाई भी करनी आवश्यक होती है। यदि हल्की बारिश हो रही है तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

कालमेघ के लिए खाद एवं उर्वरक

अति महत्वपूर्ण तथा व्यापक रूप से अनेक औषधियों में प्रयुक्त की जाने वाली औषधीय फसल होने के कारण यदि सम्भव हो तो इसमें रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग न किया जाय। उपलब्ध रहने पर 5-10 टन सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग किया जाय। इसके अभाव में सामान्य तौर पर इसमें 40 कि0ग्रा0 नत्रजन तथा 20 कि0ग्रा0 फास्फोरस का प्रयोग किया जाता है। नत्रजन की पूरी मात्रा को दो बराबर भागों में बाँट कर 30-35 दिनों के अन्तराल पर प्रयोग करना चाहिए इससे पौधों में वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है। भूमि में पोटाश तत्व की कमी रहने पर 25-30 कि0ग्रा0 पोटाश का प्रयोग रोपाई पूर्व खेत की तैयारी करते समय भूमि में मिला कर करना चाहिए।

कालमेघ की सिंचाई तथा निराई गुड़ाई

खरीफ की फसल होने के कारण अक्टूबर-नवम्बर तक यदि उचित अन्तराल पर वर्षा होती रहती है तो कालमेघ में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु अक्टूबर माह में वारिश न होने की दशा में एक सिंचाई करना अत्यन्त आवश्यक होता है। वर्षा में अधिक अन्तराल होने पर समयानुसार एक-दो निराई गुड़ाई करना लाभदायक रहता है। इससे खरपतवारों की वृद्धि नहीं होती तथा पौधों की वानस्पतिक वृद्धि भी अच्छी होती है। 

कालमेघ की कटाई

कालमेघ रोपण से 100-110 दिन उपरान्त कटाई योग्य हो जाते है तथा हर हालत में 120 दिनों के भीतर इसकी कटाई कर ली जानी चाहिए। जब पौधों के आधे भाग में फूल दिखाई पड़ने लगें तथा नीचे की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें तब वे कटाई योग्य हो जाते है। इसकी कटाई जमीन के दो इंच ऊपर से की जाती है। फूलों के निकलने के समय इसमें एल्केलाइड की मात्रा सर्वाधिक होती है अतः ऊपरी भाग कोउचित समय पर काटकर छाया में इसे सुखाकर उचित ढंग से भण्डारित करना चाहिए। कटाई में विलम्ब करने पर पौधों की पत्तियां सूख कर गिरने लगती हैं जिससे इसकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है।

कालमेघ की उपज 

कालमेघ के एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग 30-35 कुन्तल तक शुष्क शाक का उत्पादन होता है। बीज प्राप्त करने हेतु फसल की 5 प्रतिशत कटाई नहीं करते हैं। सूखने के बाद बीज अलग कर लेते हैं।


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