तुलसी का पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होने के साथ ही साथ सुगन्धित तेल की प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। यह लिलयेसी कुल का महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है तुलसी को अमृता, सुगन्धा, बृन्दा, वैष्णवी, सुखवल्लरी, विष्णुवल्लभा तथा श्रीकृष्ण वल्लभा आदि पवित्र नामों से जाना जाता है। नाम के अनुसार ही इसके औषधीय गुण अपरिमित हैं। जिनका सम्पूर्ण वर्णन करना सम्भव नहीं है। यह सर्व रोग निवारक तथा जीवनीय शक्तिवर्धक पौधा है। इसकी कई प्रजातियां मिलती हैं जिनमें औषधीय गुणों की दृष्टि से रामा तथा श्यामा तुलसी सर्वश्रेष्ठ है।
औषधीय उपयोग
औषधीय गुणों से युक्त तुलसी कफ वात शामक, दुर्गन्धनाशक, कृमिघ्न, कफघ्न, रक्त शोधक हृदयोत्तेजक, ज्वरघ्न, शोथहर, दीपक तथा पाचक के रूप में बहुतायत से आम आदमियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसके बीजों में मूत्रल तथा बल्यता का गुण पाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रयोग शक्तिवृद्धि के लिए, कुष्ठ रोग नाश के लिए, दन्त शूल दूर करने के लिए, वमन शान्त करने में, अतिसार एवं दस्त, वात व्याधि, अपच तथा सभी प्रकार के ज्वरों में भी सफलतापूर्वक किया जाता है।
औषधीय गुणों से युक्त तुलसी कफ वात शामक, दुर्गन्धनाशक, कृमिघ्न, कफघ्न, रक्त शोधक हृदयोत्तेजक, ज्वरघ्न, शोथहर, दीपक तथा पाचक के रूप में बहुतायत से आम आदमियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसके बीजों में मूत्रल तथा बल्यता का गुण पाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रयोग शक्तिवृद्धि के लिए, कुष्ठ रोग नाश के लिए, दन्त शूल दूर करने के लिए, वमन शान्त करने में, अतिसार एवं दस्त, वात व्याधि, अपच तथा सभी प्रकार के ज्वरों में भी सफलतापूर्वक किया जाता है।
भूमि एवं जलवायु
तुलसी को सभी प्रकार की जलवायु में उगाया जा सकता है। उपोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में तुलसी जाड़े की फसल के रूप में उगायी जा सकती है। उत्तर भारत के मैदानी भागों में इसे ग्रीष्म ऋतु की फसल के रूप में उगाया जाता है। तुलसी के पौधों की सन्तोषजनक वानस्पतिक वृद्धि के लिए मध्यम तापक्रम वाले क्षेत्र उपयुक्त होते हैं।
तुलसी को विभिन्न प्रकार की मृदाओं तथा जलवायु वाली दशाओं में आसानी से उगाया जा सकता है। पहाड़ों, उबड़-खाबड़ जगहों पर भी तुलसी का पौधा प्राकृतिक रूप से उगता हुआ पाया जाता है। इसकी व्यावसायिक खेती करने के लिए 6.5-8 पी0एच0 मान वाली दोमट एवं बलुई-दोमट मिट्टी जिसकी जलधारण क्षमता अच्छी हो, उपयुक्त समझी जाती है। तुलसी के पौधों की अच्छी वानस्पतिक वृद्धि हेतु उचित जल निकास का होना अति आवश्यक है क्योंकि जलभराव हो जाने की दशा में जड़ों में सड़न की सम्भावना रहती है जिसके फलस्वरूप पौधे बौने हो जाते हैं। छायादार स्थानों में भी इसकी खेती की जा सकती है। किन्तु इससे तेल की मात्रा कुछ कम हो जाती है। पौधों की अच्छी वृद्धि तथा अधिक तेल उत्पादन के लिए लम्बे दिन एवं उच्च तापक्रम वाले स्थान तुलसी की खेती हेतु सर्वोत्तम होते हैं।
भूमि की तैयारी
तुलसी की व्यावसायिक खेती के लिए भूमि की अच्छी प्रकार जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी करलेना आवश्यक होता है। मिट्टी भुरभुरी हो जाने के पश्चात् निराई-गुड़ाई एवं सिंचाई की सुविधानुसार खेत को छोटे-छोटे प्लाटो में बाॅट लिया जाना चाहिए। भूमि की तैयारी करते समय प्रति हेक्टेयर 8 से 10 टन गोबर की सड़ी हुई खाद को भूमि में अच्छी प्रकार मिला देना इसके सफल उत्पादन के लिए सहायक सिद्ध होता है।
नर्सरी उत्पादन एवं पौध रोपण
तुलसी के पौधों का व्यावसायिक प्रवर्धन मुख्यतः बीजों द्वारा किया जाता है जिसके लिये नर्सरी उत्पादन का सर्वोत्तम समय फरवरी का आखिरी पखवाड़ा है। इसके लिए भली प्रकार से तैयार तथा गोबर की खाद मिलायी हुयी 2 से 3 मीटर चैड़ी तथा 5 मीटर लम्बी उठी हुयी क्यारियों में बीजों की बुवाई की जाती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई हेतु 200 से 300 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। बीजों को नर्सरी बेड में लगभग 2 सेमी0 की गहराई पर बोना चाहिए। इस प्रकार बोये गये बीजों का अंकुरण लगभग 8 से 12 दिनों में हो जाता है तथा लगभग चार से छः सप्ताह में जब पौधे चार से पाँच पत्तियों वाले हो जाते हैं तब उनकी रोपाई मुख्य खेत में कर दी जाती है। रोपाई 40 से 50 सेमी0 की दूरी पर किया जाना चाहिए। रोपण का सर्वोत्तम समय अप्रैल महीने का मध्य होता है।
निराई-गुड़ाई
तुलसी के पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए दो निराई एवं एक गुड़ाई पर्याप्त होती है। प्रथम निराई रोपण के एक माह पश्चात् तथा दूसरी निराई अगले एक माह बाद किया जाना चाहिए। रोपण के दो माह बीत जाने पर विकसित पौधों में एक गुड़ाई कर देने से इसके पौधों की अच्छी वानस्पतिक वृद्धि होती है तथा तेल उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
सिंचाई
तुलसी के पौधों को रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई की आवश्यकता होती है। यदि रोपाई वर्षा ऋतु में की जा रही हैं तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। देश के मैदानी भागों में रोपण का कार्य अप्रैल महीने के अलावा मुख्य रूप से जुलाई-अगस्त में किया जाता है। इस समय रोपित फसल की सिंचाई नहीं करनी पड़ती क्योकि इसके पौधों का जीवनकाल मात्र 80 से 90 दिनों का होता है तथा इस समय पर्याप्त नमी उपलब्ध रहती है। अप्रैल महीने में रोपित की गयी फसल में वर्षा प्रारम्भ होने के पहले आवश्यकतानुसार दो से तीन सिंचाईयों की आवश्यकता होती है।
खाद एवं उर्वरक
तुलसी के औषधीय गुणों एवं व्यापक उपयोग को दृष्टिगत रखते हुए यह सलाह दी जाती है कि इसकी खेती में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कदापि न किया जाय। रोपित फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने हेतु खेत की तैयारी करते समय केवल सड़ी हुयी गोबर की खाद तथा बाद के दिनों में कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट अथवा जैविक उर्वरकों का ही प्रयोग किया जाना श्रेयस्कर होता है।
कटाई
तुलसी के पौधों की कटाई पूर्ण पुष्पन की अवस्था में की जाती है। प्रथम कटाई 90 से 95 दिनों पर की जाती है उसके उपरान्त प्रत्येक 65 से 75 दिनों के अन्तराल पर कटाई की जा सकती है। अच्छी गुणवत्ता वाले तेल तथा तेल के अधिक उत्पादन हेतु यह आवश्यक है कि इसकी कटाई खिली हुयी धूप वाले दिनों में अपरान्ह्न में करना चाहिए। यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि बरसात हो जाने के कम से कम एक सप्ताह बाद ही कटाई की जानी चाहिए।
तेल निकालना
तुलसी का तेल वाष्प आसवन विधि से निकाला जाता है। अतः वाष्प आसवन संयन्त्र द्वारा इसका तेल निकाल लेते हैं। तेल का संग्रहण उचित पात्र में करें तथा ढक्कन बन्द रखें।
बीज प्राप्त करना
बीज प्राप्त करने हेतु फसल की कटाई बीजों के पक जाने के उपरान्त करते हैं। जब बीज पकने प्रारम्भ हो जायें फसल को काटकर छायादार स्थान पर रख देतें हैं। दस से पन्द्रह दिन के बाद जब पत्तियां पूर्णतया सूख जांय, बीजों को अलग कर लेते हैं।
पेय पदार्थ बनाने हेतु पत्तियों का संग्रह
आजकल तुलसी की पत्ती से विभिन्न प्रकार के पेय पदार्थ बनाये जा रहें हैं। पेय पदार्थ बनाने हेतु तुलसी की कटाई पुष्प निकलने से पूर्व करते हैं। कटाई के उपरान्त पौधों को धोकर अच्छी प्रकार से सुखा लेते हैं। सुखाने के उपरान्त इनकी पत्तियों को इक्कट्ठा करके भण्डारित कर लेते है। इन भण्डारित पत्तियों का प्रयोग विभिन्न प्रकार के पेय पदार्थ बनाने में करते हैं।