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कलिहारी Flame Lily (Gloriosa superba)

कलिहारी एक सुन्दर बहुवर्षीय आरोही लता है, जिसे विभिन्न नामों जैसे, कलिहारी, अग्निशिखा, गर्भनुत, उल्ट-चंडाल, विलांगुली, कंडीलफूल, विशल्या एवं सुपर्व लिली आदि नामों से जाना जाता है। इसका कांड पोला, पतला 20 फुट तक लम्बा तथा वर्षा ऋतु में प्रतिवर्ष कन्दवत मांसल बहुवर्षीय भौमिक कांड से निकलता है। भौमिक कांड हलाकार, वक्र, स्थान-स्थान पर संकुचित लगभग एक फुट तक लम्बा और डेढ़ इंच व्यास का सिरों पर नुकीला होता है। इसका ऊपरी रंग मटमैला बादामी व अन्दर से यह आलू के समान रंग का होता है। इसके पत्ते 6 से 8 इंच लम्बे वृतरहित लटवाकार-भालाकार बांस या अदरक के पत्तों के आकार के होते हैं। इसके पुष्प बड़े आकर्षक, एकल या गुच्छबद्ध होते हैं। इसमें वर्षा ऋतु में फूल तथा फल आते हैं और शीत ऋतु आते-आते इसकी लता सूख जाती है। फल चटकने पर बीज झिल्ली से ढके होने के कारण जल्दी नहीं गिरते हैं। इसका उपयोगी भाग बीज तथा कन्द है। कन्दों में विभिन्न क्षाराभ पाये जाते हैं जिनमें कोल्चीसीन प्रमुख हैं। इस लेख में सम्मिलित विषय(toc)

औषधीय उपयोग

कलिहारी शोथ, कण्ठमाला, गठिया व वात, वेदना, कुष्ठ व अर्श में, टाॅनिक के रूप में तथा मूत्रल, गर्भपतन में भी उपयोगी है। यह जटिल प्रसव को आसान बना देने एवं गर्भपात अथवा प्रसव के उपरान्त पेट में बचे आंवल व मांस के टुकड़ों को आसानी से बाहर निकाल देने की क्षमता भी रखती है। इसके बीजों का औषधीय उपयोग तो होता ही है, साथ ही इसका उपयोग फसलों की नस्ल सुधार में गुणसूत्र की संख्या दुगनी करने के लिए भी किया जाता है, जिसके कारण इसकी विदेशों में भी माॅंग है। कलिहारी एक उपविष है और अल्प मात्रा में देने पर दीपन, कटु, पौष्टिक व ज्वररोधी तथा अधिक मात्रा में देने पर गर्भनिस्सारक है।

जलवायु

कलिहारी जून-जुलाई से अक्टूबर-नवम्बर तक वर्षाकाल में होने वाली वनस्पति है और इसके लिए उष्ण तथा नम जलवायु उपयुक्त होती है।

भूमि

कलिहारी की खेती के लिए 6 से 7 पी.एच. मान वाली बलुई दोमट मिट्टी अच्छी होती है किन्तु इसकी खेती अच्छी जल निकास वाली प्रत्येक प्रकार की मिट्टी, यहाॅ तक कि पथरीली, कंकड़ीली भूमि में भी की जा सकती है।

खेत की तैयारी

इसकी खेती करने के लिए ग्रीश्म ऋतु में गहरी जुताई करके 60-60 से.मी. पर मेडे़ं व नालियांॅ बना कर मेड़ियों में कन्दो को रोपित करके इसकी बिजाई की जाती है। 

फसल की बुवाई

कलिहारी के पौधों का बीज नर्सरी डालकर तत्पश्चात रोपित किये जा सकते हैं, परन्तु ऐसा करने से पहले वर्ष में केवल कन्द ही तैयार हो पाते हैं तथा इन पर फूल तथा बीज नहीं आ पाते। किन्तु यदि इनकी बिजाई ऐसे कन्दों से की जाय जिनका वजन 50-60 ग्राम का हो तो उनके रोपण वर्ष से ही फल व बीज प्राप्त किये जा सकते है। अतः जहाँ बीज से फसल तैयार करनी हो, वहाॅंँ इसे नर्सरी में 4-6 इंच की दूरी पर वर्षा प्रारम्भ होते ही बो देना चाहिए व एक वर्ष इसी नर्सरी में पड़े रहने देना चाहिए। दूसरे वर्ष इन कन्दों को खोद कर उन्हें 0.1 प्रतिशत फफूंदी नाशी घोल से उपचारित कर वर्षा ऋतु में मेड़ियों में 60 सेमी. कतार से कतार व 40 सेमी. कन्द से कन्द की दूरी रख कर 10 से.मी. गहरे लगा देना चाहिये। यह एक आरोही लता है अतः इसके आरोहण हेतु झाड़ियों व पेड़ों की सूखी डालियों को प्रत्येक कन्द के बगल में गाड़ देना चाहिए। यदि कन्द उपलब्ध हों तो कन्द सीधे भी बोये जा सकते हैं जिनसे प्रथम वर्ष से हीं फूल और बीज प्राप्त हो सकते हैं।

खाद एवं उर्वरक

खेत की तैयारी के समय ही प्रति हे0 15-20 टन कम्पोस्ट या गोबर की खाद, 125 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फाॅस्फोरस व 75 किलोग्राम पोटाश जमीन में मिला देना चाहिये। बहुवर्षीय फसल होने के कारण खाद व उर्वरक की यही मात्रा रोपण से अगले वर्षों में भी नियमित वर्षा प्रारम्भ होते ही दे देनी चाहिये। नाइट्रोजन की आधी मात्रा खेत की तैयारी के समय तथा शेष आधी मात्रा दो बार में टापडेªसिंग के रूप में दें।

बीज की मात्रा

कलिहारी की अच्छी फसल के लिए ऐसे कन्दों का ही रोपण किया जाता है जिनका वजन 50-60 ग्राम से कम न हो। चूंकि एक कन्द से एक ही पौधा निकलता है, अतः कन्दों के आकार व वजन के आधार पर आवश्यक रोपण सामग्री की मात्रा निर्धारित होती है। औसतन 45-50 हजार कन्द प्रति हेक्टर की दर से रोपण हेतु आवश्यक है।

सिंचाई

वर्षा ऋतु में उगने के कारण वैसे तो सामान्य वर्षा होने से इसमें सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है किन्तु वर्षा की कमी के कारण तथा हल्की पथरीली भूमि पर की गई बुवाई के लिए फसल की आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।

निराई-गुड़ाई

आवश्यकतानुसार एक बार अच्छी निराई-गुड़ाई कर खरपतवार निकाल देना चाहिये। किन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि पौधे टूटने न पायें अन्यथा भूमि से ऊपर के काॅंड मर जायेंगें और उत्पादन कम होगा।

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आरोहण हेतु झाड़ियों का रोपण

फसल की बुवाई के प्रथम व तीसरे वर्ष लताओं के आरोहण हेतु प्रत्येक कन्द के बगल में सूखी झाड़ियों या डालियों का रोपण किया जाना आवश्यक होगा ताकि इन पर पौधे चढ़ सकें।

पौध संरक्षण

यह पौधा अपने आप में एक उपविष है, अतः सामान्यतः इसके संरक्षण हेतु किसी कीटनाशक की आवश्यकता नहीं होती, तथा इसमें ज्यादा कीट-व्याधियां नहीं लगतीं। परन्तु कभी-कभी कुछ कीट जैसे इल्ली, ग्रीन केटरपिलर जैसे कीटों  एवं लीफ ब्लाइट व राइजोम राट का प्रकोप इस फसल पर देखा गया है। अतः इससे बचाव के लिए फफंूदीनाशक से कन्दों का शोधन करके ही बुवाई करें एवं आवश्यकतानुसार छिड़काव भी करें। राइजोम राट से बचाव हेतु फफंूदीनाशी की ड्रेन्चिंग की जानी चाहिये।

फूल व फलन

कलिहारी के पौधों पर फूल अगस्त-सितम्बर माह में और फल अक्टूबर-नवम्बर माह तक आते हैं।

फसल की तुड़ाई

170-180 दिनों के पश्चात अधपके फल जो हल्के हरे-पीले रंग के हो जाते हैं, को तोड़ कर छाया में 10-15 दिन तक सुखाना चाहिये व फलोें से बीज अलग कर अच्छी तरह से सुखा लेने चाहिये। छिलका व बीज दोनों ही उपयोगी होते हैं, अतः इन्हें अलग-अलग बोरों में संग्रहित करना चाहिये। जब अंततः कन्दों को उखाड़ा जाए (पाॅच साल की फसल के उपरान्त) तो कन्दों को सुखाने के पूर्व इन्हें धोकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर ठीक से सुखाना चाहिए, क्योंकि इन्हें सूखने में करीब दो माह का समय लग जाता है। पुनः रोपण के लिए कन्दों को बालू के ढेर में सूखे अंधेरे कमरे में भण्डारित करना चाहिये। 

उपज

कलिहारी की खेती से प्रति हेक्टेयर 150-250 किलोग्राम बीज, 150-250 किलोग्राम छिलके व पांचवें वर्ष में 2.5 से 3.0 टन सूखे कन्द प्राप्त होते हैं चूंकि यह एक बहुवर्षीय फसल है, अतः एक बार रोपित कन्दों से 5 वर्ष तक बीजों का उत्पादन लिया जा सकता है व अंतिम वर्ष में कन्द भी खोद लेना चाहिए।


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