लौ(caps)की का उत्पत्ति स्थान अफ्रीका है जहां से यह दुनिया के अन्य देशों में पहुंची। इसकी खेती प्राचीन काल से की जा रही है। लौकी का वैज्ञानिक नाम लेगेनेरिया सिसेरिया (Lagenaria siceraria) है और यह कुकुरबिटेसी ( Cucurbitaceae) परिवार का पौधा है। कद्दू वर्गीय इस सब्जी के ताजे फल का प्रयोग सब्जी के अतिरिक्त रायता, कोफ्ता, हलवा तथा खीर आदि स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में किया जाता रहा है। इसके पके फलों का उपयोग वाद्य यंत्र तथा अन्य प्रकार के शोभा कारी बर्तन बनाने में किया जाता है। लौकी कब्ज को कम करने, पेट को साफ करने, खांसी या बलगम दूर करने में अत्यधिक लाभकारी है। यह पोटेशियम का अच्छा स्रोत है, इसके 100 ग्राम फल में लगभग 170 मिलीग्राम पोटेशियम पाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके मुलायम फल में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, रेशा, विटामिंस व अन्य खनिज लवण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। लौकी की खेती पूरे भारतवर्ष में की जाती है। देश में सबसे ज्यादा लौकी का उत्पादन बिहार राज्य में होता है जो देश के कुल उत्पादन में 25% का योगदान देता है, दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश आता है जहां पर देश की कुल लौकी का 16% उत्पादन होता है ।
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लौकी के लिए जलवायु
लौकी की अच्छी पैदावार के लिए गर्म तथा आद्रता वाली जलवायु सर्वोत्तम होती है। इसकी फसल को पाला से बहुत नुकसान होता है। लौकी की बढ़वार 32 से 38 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में बहुत अच्छी होती है। लौकी की खेती जायल तथा खरीद दोनों ऋतु में सफलतापूर्वक की जा सकती है।
लौकी के लिए भूमि
लौकी की खेती के लिए बलुई दोमट तथा चिकनी मिट्टी जिस में पर्याप्त मात्रा में जीवांश पदार्थ उपलब्ध हो, उपयुक्त होती है। मिट्टी का पीएच मान 6:00 से 7:00 होना चाहिए और उसकी जल धारण क्षमता अच्छी होनी चाहिए। पथरीली तथा ऐसी भूमि जहां जलभराव होता है, लौकी के लिए उपयुक्त नहीं होती है।
लौकी के लिए भूमि की तैयारी
खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करना चाहिए जिससे खरपतवार दबकर सड़ जाते हैं और मिट्टी पलट जाती है। इसके बाद दो-तीन जुताई देसी हल या कल्टीवेटर से करना चाहिए। खेत की प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी तथा समतल कर लिया जाता जिससे खेत की सिंचाई समान रूप से होती है और अधिक वर्षा होने पर जल निकास की भी समुचित व्यवस्था हो जाती है। खेत में रोटावेटर चला कर भी खेत की मिट्टी को भुरभुरी किया जा सकता है।
लौकी की उन्नत प्रजातियां
पूसा नवीन
इस प्रजाति के फल बेलना कार सीधे तथा लगभग आधा किलो के होते हैं। इससे 350 से 400 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है। बरखा बहार इस प्रजाति के फल सीधे मध्यम आकार के तथा लगभग 1 किलो भार के होते हैं। इस प्रजाति की उत्पादकता 400 से 500 कुंतल प्रति हेक्टेयर है।
नरेंद्र रश्मि
इस प्रजाति के फल हल्के हरे रंग के और छोटे होते हैं फलों का औसत वजन 1 किलोग्राम के लगभग होता है। इस प्रजापति अवसरों पर लगभग 300 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। इस प्रजाति में सूर्य नील फफूंदी तथा मृदु रोमिल आशिता बीमारियों का प्रकोप कम होता है।
पूसा संदेश
इस प्रजाति के पौधे मध्यम लंबाई के होते हैं। फल गोलाकार मध्यम आकार के तथा लगभग 600 ग्राम भोजन के होते हैं। यह प्रजाति खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त है। इसके फल 50 से 65 दिनों के बाद पढ़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। अवसर ऊपर 320 कुंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है।
काशी गंगा
इस प्रजाति के पौधे मध्यम आकार के तथा इसके तने पर गांठे कम दूरी पर विकसित होती हैं। फल मध्यम आकार के होते हैं जिनका औसत भार 800 से 900 ग्राम तक होता है। यह प्रजाति खरीफ तथा जायद दोनों के लिए उपयुक्त होती है। इसके फल जायद में 50 दिनों में तथा खरीफ में 55 दिनों में पढ़ाई के लिए उपयुक्त हो जाते हैं। औसत उपज 435 कुंतल प्रति हेक्टेयर है।
काशी बहार
यह संकर प्रजाति है जिसमें प्रारंभिक घाटों से फल बनना प्रारंभ होते हैं। हेलो का औसत वजन 780 से 850 ग्राम होता है। यह प्रजाति भी खरीद तथा जायत दोनों ऋतु के लिए उपयुक्त होती है और इसकी औसत उपज 520 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। यह प्रजाति नदियों के किनारे उगाने के लिए उपयुक्त पाई गई है।
लौकी के लिए खाद एवं उर्वरक
खेत में जीवांश पदार्थ की उपयुक्त मात्रा सुनिश्चित करने के लिए 25 टन गोबर की साड़ी खाद या कंपोस्ट खेत की तैयारी के समय मिला देना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 50 किलोग्राम नत्रजन 35 किलोग्राम फास्फोरस और 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। नत्रजन की एक चौथाई मात्रा 4 से 5 पत्ती आने की अवस्था में तथा शेष एक चौथाई मात्रा पौधों में फूल बनने के पहले टॉप ड्रेसिंग के रूप में छिड़काव कर देना चाहिए। उर्वरक का प्रयोग करते समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
लौकी के बीज की मात्रा
सीधी बुवाई के लिए लगभग 3 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यक होता है परंतु यदि पॉलिथीन की थैलियों अथवा प्लांट ट्रे में नर्सरी उत्पादन कर पौधों को खेत में रोपण करना है तो 1 से 1.5 किलो बीज पर्याप्त होता है।
लौकी के बीज के बुवाई का समय व विधि
लौकी की खेती जायद तथा खरीफ दोनों ऋतु में की जाती है। जायद फसल की बुवाई 15 से 25 फरवरी तक तथा खरीफ फसल की बुवाई 15 जून से 15 जुलाई तक कर देना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों में लौकी की बुवाई मार्च से अप्रैल के बीच में की जाती है। लौकी की बुवाई के लिए 50 सेंटीमीटर चौड़ी तथा 25 सेंटीमीटर गहरी नाली बना लेते हैं। जायद की फसल के लिए नालियों के बीच की दूरी 2.5 से 3.5 तथा खरीफ की फसल के लिए 4 से 4.5 मीटर रखते हैं। इन नालियों के दोनों किनारे पर जायद की फसल के लिए 60 से 75 सेंटीमीटर की दूरी पर तथा खरीफ की फसल के लिए 80 से 85 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज की बुवाई करते हैं। बीज की बुवाई 4 सेंटीमीटर की गहराई पर करते हैं और एक स्थान पर दो से तीन बीज रखते हैं।
लौकी की सिंचाई
खरीफ में लौकी के खेत की सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि अधिक वर्षा होने पर जल निकास की व्यवस्था करनी पड़ती है। जायद की फसल में गर्मी होने के नाते चार-पांच दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। वर्षा ना होने की दशा में खरीफ फसल की सिंचाई 10 से 15 दिनों के अंतराल पर किया जाता है।
लौकी में खरपतवार नियंत्रण और निकाई गुड़ाई
खेत को खरपतवार से मुक्त रखने के लिए दो-तीन बार निकाई गुड़ाई करना पड़ता है। पहली निकाई, बुवाई के 25 से 30 दिनों के बाद करनी चाहिए। इसके बाद निकाई के साथ-साथ पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी भी चढ़ा देना चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार नष्ट करने के लिए ब्यूटाक्लोर (Butachlor) नामक खरपतवारनासी कि 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुवाई के तुरंत बाद और जमाव के पहले छिड़काव कर देना चाहिए।
लौकी को सहारा देना
लौकी का पौधा एक लता है जिसकी अच्छी बढ़वार के लिए तथा गुणवत्ता युक्त फल प्राप्त करने के लिए पौधे को सहारा देने की आवश्यकता होती है। फसल को मचान निर्मित कर सहारा देना चाहिए। मचान की ऊंचाई लगभग 5 फीट रखी जाती है। सहारा देने से फलों की बढ़वार अच्छी होती है और उनमें अच्छा रंग आता है साथ ही साथ शस्य क्रियाएं भी करने में सुविधा होती है।
लौकी के फलों को तोड़ना और उपज
लौकी के फलों की तुड़ाई मुलायम अवस्था में किया जाता है । फलों पर जब रोयें लगे हो तब वह तोड़ने के लिए बहुत उपयुक्त अवस्था में होते हैं। फलों को तोड़ने के लिए तेज चाकू अथवा कैंची का प्रयोग करना चाहिए और फलों की तुड़ाई चार-पांच दिनों के अंतराल पर करते रहना चाहिए। लौकी की औसत उपज 350 से 500 कुंतल प्रति हेक्टेयर होती है।
लौकी का बीज उत्पादन
लौकी एक monoecious पौधा है अर्थात इसमें नर और मादा फूल एक ही पौधे पर अलग-अलग स्थानों पर पाए जाते हैं। इसमें बहुत ही आसानी से cross-pollination हो जाता है जिसके कारण बीज उत्पादन के लिए कम से कम 800 मीटर की अलगाव दूरी (isolation distance) रखी जाती है अर्थात जिस प्रजाति का बीज उत्पादन किया जाना हो उस प्रजाति से 800 मीटर की दूरी तक कोई अन्य प्रजाति नहीं होनी चाहिए, नहीं तो cross-pollination होने के कारण बीज की गुणवत्ता प्रभावित हो जाती। लौकी के मादा फूल में नीचे छोटे से आकार का फल लगा होता है जबकि नर फूल में इस प्रकार का कोई फल लगा नहीं होता है जिससे नर और मादा फूल आसानी से पहचान किए जा सकते हैं। लौकी का फूल रात में खिलता है और इसमें परागण की क्रिया भी रात में ही होती है। मुख्य रूप से इसमें कीट परागण होता है। यदि बीज उत्पादन के लिए हाथ से कृत्रिम परागण किया जाना हो तो उसे भी रात में ही करना पड़ता है। बीज उत्पादन में अवांछित पौधों (rogue) को भी निकालने की जरूरत पड़ती है। जिसमें खेत को खरपतवार के साथ-साथ अन्य प्रजाति के पौधे तथा बीमारियों से ग्रसित पौधों से मुक्त रखा जाता है। बीज उत्पादन के लिए खेत का कम से कम 3 बार निरीक्षण किया जाता है। प्रथम निरीक्षण फूल आने से पहले, दूसरा निरीक्षण फल आने पर तथा अंतिम और तीसरा निरीक्षण फलों की तुड़ाई करने से ठीक पहले किया जाता है। शेष उत्पादन की क्रियाएं उसी प्रकार से की जाती हैं जैसे सब्जी के लिए लौकी की खेती की जाती है। बीज के लिए फलों की तुड़ाई पकने पर किया जाता है। पकने पर फल हल्के हरे रंग के हो जाते हैं और उनके ऊपर दिखने वाले रोयें गिर जाते हैं तथा फल चिकना हो जाता है। फल को तोड़ने के बाद लगभग 1 हफ्ते के लिए रख दिया जाता है इसके बाद फलों से बीज निकालकर उनको पानी से साफ कर लिया जाता है और भली प्रकार से सुखाकर बीज रख लिया जाता है।