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गुग्गुल Guggul (Commiphora wightii)

गुग्गुल का छुप या छोटा पेड़ केवल वर्षा ऋतु में वृद्धि करता है। शीतकाल व ग्रीष्म काल में इसके पौधों में सुषुप्तावस्था के कारण इसके पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अवरूद्ध हो जाती है। इसके पत्ते छोटे, एकान्तर सरल, केवल वर्षा ऋतु में जुलाई से सितम्बर-अक्टूबर तक पेड़ पर रहते हैं उसके बाद गिर जाते है। वर्ष के बाकी दिनों में इसका पौधा पर्ण विहीन रहता है तथा वृद्धि नहीं करता। इसके तने से सफेद रंग का दूध निकलता है। अधिक उपयोग होने व प्राकृतिक वनों से   अत्याधिक कटाई हो जाने के कारण यह प्रजाति विलुप्तावस्था की कगार पर पहुँच गयी है। इस प्रजाति को बचाने हेतु व्यापक स्तर पर इसकी व्यावसायिक खेती करने की आवश्यकता है। भारत में लगभग 5 टन गुग्गुल का उत्पादन होता है जबकि इसकी आवश्यकता इससे कहीं अधिक है। जिसकी पूर्ति के लिए हमें पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान से इसको आयात करना पड़ता है। इसके द्वारा प्राप्त गोंद में विभिन्न क्षाराभ पाये जाते हैं जिनमें गुग्गुल स्टेराल प्रमुख है। इस लेख में सम्मिलित विषय(toc)

औषधीय उपयोग

गुग्गुल की शाखाओं से प्राप्त किये जाने वाले रस को रक्त में कोलेस्ट्राल की बढ़ी हुयी मात्रा को कम करने में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके रस का प्रयोग बवासीर रोग के उपचार में भी होता है। इससे प्राप्त गोंद का प्रयोग एसट्रिन्जेंट के रूप में, एन्टीसेप्टिक के रूप में तथा कार्मेनेटिव के रूप में होता है। इसके अतिरिक्त इस गोंद का प्रयोग रक्त में प्लाजमा की मात्रा को बढ़ाने में भी सहायक होता है। गुग्गुल की गोंद का प्रयोग औषधि के रूप में तथा सुगन्धित पूजा की सामग्री बनाने में किया जाता है। औषधि के रूप में यह जलन नाशक के रूप में, वात रोग, गठिया रोग, अपच, आमाशय के रोग तथा दमा के कष्टों को शमन करने के लिए लाभकारी है। अगरबत्ती, धूपबत्ती तथा अन्य सुगन्धित पूजन सामग्री आदि के निर्माण में भी इसका प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। 

जलवायु

गुग्गुल के पौधे प्राकृतिक रूप से राजस्थान, गुजरात, विदर्भ, कर्नाटक व मध्य प्रदेश के जंगली क्षेत्रों में पाये जाते हैंै। इसके लिए उष्ण कटिबंधीय कम वर्षा वाले (75-100 से.मी.) तथा शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र उपयुक्त होते हैं। इसके पौधों की अच्छी वानस्पतिक वृद्धि छायादार पौधों के साथ सहफसल के रूप में इसे उगाने से होती है। अतः इसको वनों में या बगीचे में, खेत की मेड़ों पर, छायादार पेड़ों के नीचे अथवा बाड़ के रूप में खेत के चारों ओर लगाया जा सकता है।

भूमि

गुग्गुल की व्यावसायिक खेती हेतु अच्छे जल निकास वाली रेतीली, पहाड़ी भूमि उपयुक्त होती है। यह परती भूमि के विकास हेतु उपयुक्त झाड़ी है जिसके पौधे शुष्क क्षेत्रों में अच्छी वृद्धि करते हैं तथाअसिंचित दशा में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। 

प्रजातियां

अभी तक गुग्गुल की उन्नत किस्मों का विकास नहीं किया जा सका है। नेशनल रिसर्च सेन्टीर फाॅर मेडिसिनल एण्ड एरोमैटिक प्लाण्ट, बोरियावी, आनन्द, केन्द्रीय एरिड जोन रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर तथा जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर से इसके पौधे प्राप्त किये सकते हैं।

प्रवर्धन तकनीक

इसका प्रवर्धन कलमों के द्वारा होता है। जून-जुलाई में आधा सें.मी. मोटाई की कलमें काटकर नर्सरी में पाली बैग में एक वर्ष तक लगाना चाहिये उसके बाद रोपण करना चाहिये। इन कलमों को यदि ग्रीन हाउस में लगाया जाये तो ग्रीष्म व शीत ऋतु में भी अधिक संख्या में व अधिक वृद्धि वाले पौधे प्राप्त किये जा सकते हैं।

रोपण तकनीक

इसकी रोपाई के लिये जुलाई से अगस्त का समय उपयुक्त है। सिंचित दशा में रोपाई का कार्य फरवरी तक किया जा सकता है। पौधे से पौधे की दूरी 2 मीटर तथा कतार से कतार की दूरी 2 मीटर रखते हुए प्रति हैक्टेयर लगभग 2500 पौधे रोपित किये जाते हैं। 

खाद एवं उर्वरक

गुग्गुल की खेती के लिए प्रति पौधा 10 किग्रा. सड़ी हुयी गोबर की खाद प्रतिवर्ष देने से पौधों का विकास अच्छा होता है। इसके रोपण के समय रसायनिक खादों का उपयोग नहीं करना चाहिए जिससे कि इसकी गुणवत्ता प्रभावित न हो।

सिंचाई

गुग्गुल के रोपण के प्रथम वर्ष में नमी न होने की दशा में एक माह के अन्तराल पर सिंचाई करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। एक वर्ष के उपरान्त सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती।

निराई-गुड़ाई

खेत में खरपतवारों की अधिकता न हो इसके लिए आवश्यकतानुसार वर्ष में निराई-गुड़ाई आवश्यक होती है। समान्यतया वर्ष में दो से तीन बार निराई-गुड़ाई आवश्यक है।

अन्तर फसलें

इस फसल की वृद्धि बहुत ही मंद गति से होती हैं अतः बीच की खाली जगह में कालमेघ, सतावर, सफेद मूसली, घृतकुमारी आदि की फसलें ली जा सकती हैं। गुग्गुल का विकास अर्धछायादार स्थानों पर अच्छा होता है। अतः इसकी खेती बगीचों में करने से अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है और दोहरा लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है।

कीट नियंत्रण

इसमें दीमक का प्रकोप होता है अतः इसके बचाव के लिए टरमेक्स पाउडर 20-25 किग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से बुरकाव करें।

कटाई

गुग्गुल के पौधों की वृद्धि बहुत ही मंद गति से होती है। 8 वर्ष बाद इससे ओलियोरेशिन प्राप्त करते हैं। इसके लिये मुख्य तने को छोड़कर इसकी शाखाओं में चीरा लगाकर गोंद प्राप्त करते हैं। गोंद प्राप्त करने के बाद शाखा सूख जाती है। यदि मुख्य तने में चीरा लगाकर गोेंद प्राप्त करेंगें तो पूरा पेड़ ही सूख जायेगा। गोंद निकालने के  लिए पेन्सिल की मोटाई वाली शाखाओं को पाँच साल के बाद प्रति वर्ष काटते जाते हैं। कटे हुए स्थान से गोंद का स्राव होने लगता है जिसे संग्रहित करके सुखा करके भण्डारित कर दिया जाता है। इस प्रकार काटी गयी शाखाओं को नर्सरी में नये पौधों को तैयार करने के लिए रोपित कर दिया जाता है। इस प्रकार गोंद एकत्र करने में गोंद कम मिलती है तथा इसके संग्रहण की लागत भी बढ़ जाती है किन्तु इस विधि से लाभ यह है कि इसमें गुग्गुल की झाड़ी पूर्णतया नष्ट नहीं होती साथ ही साथ काटी गयी शाखाओं से नयी पौध प्राप्त होती रहती है।

उपज

पूर्ण रूप से विकसित पौधे से लगभग 500-600 ग्राम प्रति पौध गुग्गुल गोंद प्राप्त की जा सकती है। 


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