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ईसबगोल Isabgol की खेती से अधिक लाभ

 ईसबगोल (Plantago ovata) पारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है जड़ी बूटी तथा गोल। इसका कुल Plantaginaceae है जो एक बीज पत्री वर्ग में आता है। इसके बीज उभरे हुए तथा घोड़े के कान जैसे होते है जिसके कारण इसे संस्कृत में अश्वकर्ण भी कहा जाता है। इसका पौधा आधा सेंटीमीटर तक ऊँचा हो सकता है जिसमें 4-15 तक शाखायें होती है इसकी रोमिल पत्तियाँ प्रारम्भिक अवस्था में गेहूँ की पत्तियों से मिलती जुलती हैं। बाल की लम्बाई 3-5 सेंटीमीटर होती है। शाखाओं के सिरे से निकलने वाली बाल में अलसी से छोटे दाने भरे रहते हैं। दाने एक सफेद पतली झिल्ली से ढके रहते हैं जिसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह पौधा मेडीटेरियन क्षेत्र एवं पश्चिमी एशिया का देशज है जहाँ से इसे भारत लाया गया। विश्व में ईसबगोल के उत्पादन एवं निर्यात में भारत का एकाधिकार है।

इसबगोल के औषधीय गुणों के कारण इसकी बाजार में अच्छी मांग है इसके बीज और भूसी दोनों को ऊंचे मूल्य पर बेचा जाता है ईसबगोल की खेती से लाखों कमाया जा सकता है

ईसबगोल की खेती के अन्तर्गत भारत में लगभग 50,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल है। गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में इसकी व्यावसायिक खेती की जाती है। हाल के वर्षों में इसकी खेती का प्रचलन बढ़ रहा है।

औषधीय उपयोग

ईसबगोल का औषधीय उपयोग अनेक ग्रंथों जैसे वैद्यामृत, निघंटु संग्रह, शालिग्राम निघंटु तथा आयुर्वेद विज्ञान में मिलता है। इनके अनुसार ईसबगोल की सफेद भूसी पौष्टिक, शीतल और मूत्रल होती है। कब्ज एवं अतिसार दोनों में इसका प्रयोग किया जाता है। इन दोनों प्रभावों को प्राप्त करने हेतु इसकी सेवन विधि में अन्तर होता है। कब्ज, विशेषतः पुरानी कब्ज के अतिरिक्त अतिसार, अमीविक पेचिस, अफारा, शरीर में किसी प्रकार का संक्रमण होना, संग्रहणी, पुराना आंत्रशोथ आदि उदर विकारों के उपचार में उपयोगी है। इसके अतिरिक्त यह दमा तथा गुर्दे के रोगों में भी लाभकारी होता है। औषधीय उपयोग के अलावा आइसक्रीम, चाकलेट, कास्मेटिक्स एवं प्रसंस्कृत उत्पाद तैयार करने में भी इसका प्रयोग किया जाता है।

भूमि एवं जलवायु

ईसबगोल रबी की फसल है। इसके लिए ठंडी, शुष्क जलवायु तथा कम वर्षा वाले क्षेत्र उचित रहते हैं। मार्च माह में इसकी कटाई की जाती है। कलियों में बीज बनने के उपरान्त हल्की सी भी वर्षा से इसका उत्पादन प्रभावित होता है। व्यावसायिक कृषि उचित जल निकास वाली हल्की भूमि, बलुई मृदा में हो सकती है। भूमि का पी0एच0 मान 7.0 से 8.5 तक रहना चाहिए। हल्की लवणीय अथवा क्षारीय भूमि में भी इसे उगाया जा सकता है।

प्रजातियाँ

भारत में इसकी कई प्रजातियाँ पायी जाती है जिनमें से व्यावसायिक कृषि हेतु चार किस्मों का विकास किया गया है। ये किस्में-गुजरात ईसबगोल-1, गुजरात ईसबगोल-2, निहारिका एवं एच0आई0-4 हैं।

भूमि की तैयारी

खेत में प्रति हेक्टेयर की दर से 10-15 टन सड़ी गोबर की खाद फैलाकर अच्छी प्रकार से जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी कर लेना चाहिए।

बुवाई का समय तथा बीज की मात्रा

वर्षा की स्थिति के अनुसार मध्य नवम्बर तक ईसबगोल की बुवाई करना सर्वोत्तम रहता है। बुवाई छिटकवाँ विधि से अथवा सीडड्रिल द्वारा कतारों  में की जा सकती है। कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। बीजों को 1-2 सेंटीमीटर से अधिक गहराई पर नहीं डालना चाहिए अन्यथा अंकुरण की समस्या पैदा हो सकती है। बुवाई उपरान्त बीजों को मिट्टी से ढककर खेत की सिंचाई करना आवश्यक होता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल हेतु 5-10 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।

खाद एवं उर्वरक

औषधीय पौधों के उत्पादन में जहाँ तक सम्भव हो जैविक खादों का ही प्रयोग किया जाना श्रेयस्कर होता है। बुवाई के समय 20 किलोग्राम नत्रजन तथा 30 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर देना लाभदायक रहता है। दूसरी सिंचाई के समय 20 किलोग्राम नत्रजन की टापड्रेसिंग करना चाहिए।

सिंचाई तथा निकाई-गुड़ाई

ईसबगोल की बुवाई के तुरन्त बाद सिंचाई करना आवश्यक होता है। यह अंकुरण के लिए जरूरी है तथा एक माह की फसल हो जाने पर पौधों में शाखाओं के विकास प्रारम्भ होने की अवस्था में सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। मृदा की जल धारण क्षमता अच्छी रहने पर और सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। बुवाई के 30-40 दिन के उपरान्त एक बार निकाई-गुड़ाई करके फसल को खरपतवार मुक्त कर देना चाहिए।

फसल सुरक्षा

ईसबगोल के पौधों पर अधिक आर्द्र वातावरण कई दिनों तक बने रहने की दशा में माहू कीट का प्रकोप बहुत अधिक होता है जिसके नियन्त्रण हेतु इन्डोसल्फान (2 मि0ली0 दवा/500 ली0पानी) के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

फसल परिपक्वता एवं कटाई

पौधों की पत्तियाँ जब पीली पड़ने लगें, बाल का रंग मटमैला सा हो जाय तथा बाल को हाथ में लेकर दबाने से दाने बाहर निकलने लगें तब समझ लेना चाहिए कि फसल कटाई योग्य हो गयी है। यह अवस्था बुवाई के 120-130 दिन के उपरान्त मार्च माह में आती है। कटाई का कार्य पूर्वान्ह में 8 बजे तक ही किया जाना चाहिए तथा बालों से दाने निकालने का कार्य भी जल्दी ही कर लेना चाहिए। साफ दानों को पूर्ण रूप से सुखाकर उचित रूप से शुष्क स्थानों पर भण्डारण कर लेना चाहिए।

प्रसंस्करण

ईसबगोल के बीज के ऊपरी छिलके के रूप में जो सफेद झिल्ली चढ़ी होती है उसे ही भूसी कहा जाता है। इसी भूसी को बीज से पृथक किया जाता है। यह कार्य मिलिंग करके अथवा ओखली में कूटकर किया जाता है।

उपज

मृदा उर्वरता के स्तर के आधार पर ईसबगोल के दानों की उपज लगभग 10 से 15 कुंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। कुल दानों के वजन का 30 प्रति शत भूसी निकलती है।

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